Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 318
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- २६२ कैसे हो है ? सो कहिए है- प्रथम तीन करणकरि तहाँ मिध्यात्व के परमाणूनिको मिश्रमोहनी वा सम्यक्त्व मोहनीरूप परिणमावै वा निर्जरा करे, ऐसे मिथ्यात्व की सत्ता नाश करे। बहुरि मिश्रमोहनी के परमाणूनिको सम्यक्त्व मोहनीरूप परिणमावे वा निर्जरा करें, ऐसे मिश्रमोहनी का नाश करे। बहुरि सम्यक्त्वमोहनी के निषेक उदय आय खिरे, वाकी बहुत स्थिति आदि होय तो ताको स्थितिकांडादिकरि घटावै । जहाँ अन्तर्मुहूर्त्तस्थिति रहै, तब कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी होय । बहुरि अनुक्रमतें इन निषेकनिका नाश करि क्षायिक सम्यग्दृष्टी हो है । सो यहु प्रतिपक्षी कर्म के अभाव निर्मल है वा मिथ्यात्वरूप रंजना के अभावतें वीतराग है । याका नाश न होय । जहाँतें उपजे तहाँ सिद्ध अवस्था पर्यन्त याका सद्भाव है। ऐसे क्षायिक सम्यक्त्व का स्वरूप कह्या । ऐसे तीन भेद सम्यक्त्व के हैं । 1 बहुरि अनन्तानुबंधी कषाय की सम्यक्त्व होत दोय अवस्था हो है। कै तो अप्रशस्त उपशम हो है, के विसंयोजन हो है। तहाँ जो करणकरि उपशम विधान उपशम होय ताका नाम प्रशस्त उपशम है। उदय का अभाव ताका चाप राप्रशस्त उस है । सो आन्तास्त उपशम तो होय ही नाहीं, अन्य मोहकी प्रकृतीनिका हो है । बहुरि इस का अप्रशस्त उपशम हो है । विशेष- लब्धिसार टीका पृ. ८३ पर सिद्धान्तशिरोमणि करणानुयोग प्रभाकर रतनचंद मुख्तार लिखते हैं: - अनन्तानुबन्धी चतुष्क का न तो अन्तर होता है और न ही प्रशस्त उपशम होता है। हाँ, परिणामों की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिबुक संक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धी कषाय का अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय रूप परिणमन होकर परमुख उदय होता रहता है (उपशम सम्यक्त्व के काल में)। फिर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में अधिक से अधिक ६ आवली तथा कम-से-कम १ समय शेष रहने पर परिणाम की विशुद्धि में हानि हो जाये तो अनन्तानुबन्धी का स्तिबुक संक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबन्धी के परमुख उदय के बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की आसादना (विराधना ) हो जाती है। ' I बहुरि जो तीन करणकरि अनन्तानुबंधीनि के परमाणुनिको अन्य चारित्रमोह की प्रकृति रूप परिणमाय तिस की सत्ता नाश करिए, ताका नाम विसंयोजन है । सो इनविषै प्रथमोपशम सम्यक्त्वविषै तो अनन्तानुबंधी का अप्रशस्त उपशम ही है । बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति पहिले अनन्तानुबंधी का विसंयोजन भए ही होय; ऐसा नियम कोई आचार्य लिखे हैं, कोई नियम नाहीं लिखे हैं । बहुरि क्षयोपशम सम्यक्त्वविषै कोई जीव कै अप्रशस्त उपशम हो है या कोईकै विसंयोजन हो है । बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व है सो पहले अनन्तानुबंधी का विसंयोजन भए ही हो है, ऐसा जानना । यहाँ यह विशेष है- जो उपशम क्षयोपशम सम्यक्त्वीक अनन्तानुबंधी का विसंयोजन सत्ता नाश भया था, बहुरि वह मिथ्यात्वविषै आवे तो १. यहाँ कोई ऐसा न समझ ले कि अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं होती है, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना होती है पर यहाँ विशेषार्थ में हमें मात्र अप्रशस्त उपशम ही स्पष्ट करना अभीष्ट रहा है. 1

Loading...

Page Navigation
1 ... 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337