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नवमा अधिकार-२८३
इहाँ प्रश्न- जो ए चारि लक्षण कहे, तिनविषै यह जीव किस लक्षण को अंगीकार करे?
ताका समाधान- मिथ्यात्वकर्म का उपशमादि होते विपरीताभिनिवेश का अभाव हो है तहाँ च्यारों लक्षण युगपत् पाइए है। बहुरि विचार अपेक्षा मुख्यपने तत्त्वार्थनिको विचार है। के आपापरका भेद विज्ञान करै है। के आत्मस्वरूपहीको सम्भार है। के देवदिक का स्वरूप विचार है। ऐसे ज्ञानविषै तो नाना प्रकार विचार होय परन्तु श्रद्धानविषै सर्वत्र परस्पर सापेक्षपनो पाइए है। तत्त्वविचार कर है तो भेददिज्ञानादिकका अभिप्राय लिए करै है अर भेदविज्ञान फरें है तो तत्वविचार दि. 4. अभिप्राय लिए करै है। ऐसे ही अन्यत्र भी परस्पर सापेक्षपणों है। ताः सम्यग्दृष्टी के श्रद्धानवियु च्यारों ही लक्षणनिका अंगीकार है। बहुरि जाकै मिथ्यात्व का उदय है ताकै विपरीताभिनिवेश पाइए है। ताकै ए लक्षण आभास मात्र होय, साँचे न होय। जिनमत के जीवादिकतत्त्वनिको मानै, और को न माने, तिनके नाम-भेदादिक को सीखे है, ऐसे तत्त्वार्थश्रद्धान होय परन्तु तिनिका यथार्थ भाव का श्रद्धान न होय। बहुरि आपापरका भिन्नपना की बातें करै अर वस्त्रादिकविषै परबुद्धिको चितवन करै परन्तु जैसे पर्यायविषे अहंबुद्धि है अर वस्त्रादिकविषै परबुद्धि है, तैसे आत्माविषै अहंबुद्धि अर शरीरादि विषै परबुद्धि न हो है। बहुरि आत्मा को जिनवचनानुसार चिन्तवै परन्तु प्रतीतिरूप आपको आप श्रद्धान न करै है। बहुरि अरहन्तदेवादिक बिना और कुदेवादिक को न मानै परन्तु तिनके स्वरूप को यथार्थ पहचानि श्रद्धान न करे, ऐसे ए लक्षणाभास मिथ्यादृष्टी कै हो हैं। इन विषै कोई होय, कोई न होय। तहाँ इनकै भिन्नपनो भी सम्भवै है। बहुरि इन लक्षणाभासनिविषै इतना विशेष है जो पहिले तो देयादिक का श्रद्धान होय, पीछे तत्त्वनिका विचार होय, पीछे आपापरका चितवन करै, पीछे केवल आत्मा को चिन्तदै । इस अनुक्रमत साथन करे तो परम्परा सांथा मोक्षमार्ग को पाय कोई जीव सिद्धपद को भी पायै ।बहुरि इस अनुक्रम का उलंघन करि जाकै देवादिक मानने का तो किछू ठीक नाहीं अर बुद्धि की तीव्रताः तत्त्वविचारादिकविष प्रवते है तातें आपको ज्ञानी जाने है। अथवा तत्त्वविचारविषै भी उपयोग न लगायै है, आपापरका भेदविज्ञानी हुवा रहै है। अथवा आपापरका भी ठीक न करै है अर आपको आत्मज्ञानी माने है। सो ए सर्व चतुराई की बाते हैं। मानादिक कषाय के साधन हैं। किछू. भी कार्यकारी नाहीं तात जो जीव अपना भला किया चाहै, तिसको यावत् सांचा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न होय, तावत् इनिको भी अनुक्रमहीतें अंगीकार करना। सोई कहिए है
सम्यक्त्व के उपाय १. पहले तो आज्ञादिकरि वा कोई परीक्षाकरि कुदेवादिक का मानना छोड़ि अरहंतदेवादिक का श्रद्धान करना । जातें इस श्रद्धान भए गृहीतमिथ्यात्व का तो अभाव हो है। बहुरि मोक्षमार्ग के विघ्नकरनहारे कुदेवादिक का निमित्त दूरि हो है। मोक्षमार्ग का सहाई अरहंतदेवादिक का निमित्त मिले है। सो पहिले देवादिक का श्रद्धान करना। २. बहुरि पीछे जिनमतविषै कहे जीवादिक तत्त्व तिनिका विचार करना। नाम लक्षणादि सीखने । जाते इस अभ्यासतें तत्त्वार्थ श्रद्धान की प्राप्ति होय । ३. बहुरि पीछे आपापरका भिन्नपना जैसे भासै तैसे विचार किया करै । जाते इस अभ्यास भेवविज्ञान होय। ४. बहुरि पीछे आपविष आपो मानने के अर्थि स्वरूप का विचार किया करै। जाते इस अभ्यास से आत्मानुभव की प्राप्ति हो है। बहुरि