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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२५२
भी न होय। जात जीव अजीवकी जाति पहिचाने विना अरहतादिकके आत्माश्रित गुणनिको वा शरीराश्रित गुणनिको भिन्न-भिन्न न जाने। जो जानै तो अपने आत्माको परद्रव्यतै भिन्न कैसे न माने? तातै प्रवचनसारविषे ऐसा कह्या है
जो जाणदि अरहंतं ददत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।
सो जाणवि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।१०।। याका अर्थ यहु- जो अरहंतको द्रव्यत्य गुणत्व पर्यायत्वकरि जाने है, सो आत्माको जानै है । ताका मोह विलयको प्राप्त हो है। तातें जाकै जीवादिक तत्त्वनिका श्रद्धान नाही, ताकै अरहंतादिकका भी सांचा श्रद्धान नाहीं । बहुरि मोक्षादिक तत्त्वका श्रद्धान विना अरहंतादिकका माहात्म्य यथार्थ न जाने। लौकिक अतिशयादिककरि अरहंत का, तपश्चरणादिकरि गुरुका अर परजीवनिकी अहिंसादिकरि धर्मकी महिमा जाने, सो ए पराश्रित भाव हैं। बहुरि आत्माश्रित भावनिकरि अरहंतादिकका स्वरूप तत्त्वश्रद्धान भए ही जानिए है। तार्तं जाकै सांचा अरहंतादिकका श्रद्धान होय, ताकै तत्त्वश्रद्धान होय ही होय, ऐसा नियम जानना। या प्रकार सम्यक्त्वका लक्षणनिर्देश किया।
यहाँ प्रश्न-जो सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान वा आपापरका श्रद्धान वा आत्मश्रद्धान वा देवगुरुधर्मका श्रद्धान सम्यक्त्वका लक्षण कया। बहुरि इन सर्व लक्षणनिकी परस्पर एकता भी दिखाई सो जानी। परन्तु अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहनेका प्रयोजन कहा?
ताका उत्तर- ए चारि लक्षण कहे, तिनिविषै सांची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किए चास्यों लक्षण का ग्रहण हो है। तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा-जुदा विचारि अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। जहाँ तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण कया है, तहाँ तो यहु प्रयोजन है जो इन तत्त्वनिको पहिचानै तो यथार्थ वस्तु के स्वरूपका वा अपने हित अहितका श्रद्धान करै तब मोक्षमार्गविषै प्रवर्ती। बहुरि जहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धानका प्रयोजन जाकरि सिद्ध होय, तिस श्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है। जीव अजीव के श्रद्धान का प्रयोजन आपापरका भिन्न श्रद्धान करना है। बहुरि आम्रवादिकके श्रद्धानका प्रयोजन रागादिक छोड़ना है सो आपापरका भिन्न श्रद्धान भए परद्रव्यविषै रागादि न करनेका श्रद्धान हो है ऐसे तत्त्वार्थ श्रद्धान का प्रयोजन आपापरका भिन्न श्रद्धानते सिद्ध होता जानि इस लक्षणको कहा है। बहुरि जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण करा है, तहाँ आपापरका भिन्न-श्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है-आपको आप जानना। आपको आप जने परका भी विकल्प कार्यकारी नाहीं। ऐसा मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानि आत्म प्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है। बहुरि जहाँ देवगुरुधर्मका श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ बाह्य साधनकी प्रधानता करी है। जातें अरहन्तदेवादिक का श्रद्धान सांचा तत्त्वार्थश्रद्धान को कारण है अर कुदेवादिक का श्रद्धान कल्पित तत्त्व श्रद्धान को कारण है। सो बाह्य कारण की प्रधानता करि कुदेवादिकका श्रद्धान छुड़ाय सुदेवादिक का श्रद्धान करावने के अर्थि देवगुरुधर्म का श्रद्धान को मुख्यलक्षण कहा है। ऐसे जुदे-जुदे प्रयोजननिकी मुख्यता करि जुदे-जुदे लक्षण कहे हैं।