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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२९६
हैं। बहुरि मिथ्यादृष्टी जीव के देवगुरुथर्मादिक का श्रद्धान आभास मात्र हो है अर याके श्रद्धानविषै विपरीताभिनिवेश का अभाव न हो है। तातै यहाँ निश्चयसम्यक्त्व तो है नाही अर व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासमात्र है जात याकै देवगुरुधर्मादिक का प्रधान है सो विपरीताभिनिवेश के अभाव को साक्षात् कारण भया नाही, कारण भए बिना उपचार सम्भवै नाहीं । तातें साक्षात् कारण अपेक्षा व्यवहार सम्यक्त्व भी याकै न सम्भव है। अथवा याकै देवगुरुधर्मादिक का श्रद्धान नियमरूप हो है सो विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धान को परम्परा कारणभूत है। यद्यपि नियमरूप कारण नाही, तथापि मुख्यपने कारण है। बहुरि कारणविषे कार्य का उपचार सम्भव है। तात मुख्यरूप परम्परा कारण अपेक्षा पिथ्यादृष्टी के भी व्यवहार सम्यक्त्व कहिए
यहाँ प्रश्न- जो केई. शास्त्रनिविषै देवगुरुधर्म का श्रद्धानको वा तत्त्वश्रद्धानको तो व्यवहार सम्यक्त्य कह्या है अर आपापरका श्रद्धान को वा केवल आत्मा के श्रद्धानको निश्चय सम्यक्त्व कहा है, सो कैसे है?
ताका समाधान- देयगुरुयर्म का श्रद्धानविषै तो प्रवृत्ति की मुख्यता है, जो प्रवृत्तिविषै अरहतादिकको देवादिक माने, और को न माने, सो देवादिक का श्रद्धानी कहिए है अर तत्त्वप्रधानविष तिनकै विचार की मुख्यता है। जो ज्ञानविषे जीवादिकतत्त्वनिको विचारे, ताको तत्त्वश्रद्धानी कहिए है। ऐसे मुख्यता पाइए है। सो ए दोऊ काहू जीव के सम्यक्त्व को कारण तो होय परन्तु इनिका सद्भाव मिथ्यादृष्टी के भी सम्भव है। तारौं इनिको व्यवहार सम्यक्त्व कह्या है। बहुरि आपापर' का श्रद्धानविषे वा आत्म श्रद्धानविषे विपरीताभिनिवेश रहितपना की मुख्यता है। जो आपापरका भेदविज्ञान करें या अपने आत्मा को अनुभवे, ताकै मुख्यपने विपरीताभिनिवेश न होय। तात मेदविज्ञानी को वा आत्मज्ञानी को सप्यादृष्टी कहिए है। ऐसे मुख्यताकार आपापर का खान वा आत्मप्रधान सम्यग्दृष्टी ही कै पाइए है। सास इनिको निश्चय सम्यक्त्व कया, सो ऐसा कथन मुख्यता की अपेक्षा है। तारतम्पपने ए च्यारों आभासपात्र मिथ्यादृष्टी के होय। सांचे सम्यग्दृष्टी के होय । तहाँ आभासमात्र हैं सो तो नियम बिना परम्परा कारण हैं अर सांचे हैं सो नियम रूप साक्षात् कारण हैं। तातै इनिको व्यवहाररूप कहिये । इनिके निमित्ततें जो विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान भया सो निश्चय सम्यक्त्व है, ऐसा जानना।
प्रशम, संदेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति लमगवाला सराग सम्यग्दर्शन होता है, यही व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इसका गुणस्थान चौधे से पठे तक ही है। सरागसम्यकावं तदेव व्यवमरसम्मानित (परमात्मप्रकाश २/७ टीका, समयसार ७७ तात्पर्यवृत्ति) । राजवार्तिक में जो भायिक सम्यक्त्व को वीतराग सम्पब कहा है (उ.मा. १/२/२६-३१) वह इस दृष्टि से कहा गया है कि अनन्तकाल तक स्थिर रहने वाले वीतराग चारित्र की उत्पत्ति तो शायिक सम्यक्त्वी मुनि को ही हो सकती है अतः मायिक सप्पकत्व को कतराग सम्यक्त्व कहा। (विशेष मेनु देखो पं.' रतलचन्द मुख्तारः व्यक्तित्व और कृतित्व पृ. ५७, १०६)
स्मरण रहे कि सराग सम्यकप या व्यवहार सम्यक्त्व भी वास्तविक सम्पकाव है। क्योंकि चोचे से छठे गुणस्थान तक सम्यक्त्व का अस्तित्व मिथ्या नहीं है। (विशेन हेतु देखो • बड़ी ग्रन्थ पृ. ८५८)