Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 292
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६६ तिनविषै काललब्धि वा होनहार तो किछु वस्तु नाहीं। जिस कालविषै कार्य बनै सोई काललब्धि अर जो कार्य मया सोई होनहार। विशेष : इस कथन में पण्डितजी ने काललब्धि का सामान्य कथन किया है। विशेष की अपेक्षा इस वाक्य पर सीधी पंडित मोतीचन्दजी व्याकरणाचार्य { अष्टसहस्री व समयसार के महाटीकाकार } द्वारा प्रवर्णित समीक्षा यहाँ उद्धृत की जाती है " काललब्धि जिनागम का पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ जानने के लिए निम्नलिखित उद्धरण प्रस्तुत हैं। देखिए- (१) तत्र काललब्धिस्तावत् कर्माविष्ट आत्मा भव्यः कालेऽर्द्धपुद्गलपरिवर्तनाख्येऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्यो भवति। इयम् एका काललब्धिः (२) अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिः । उत्कृष्ट-स्थितिकेषु कर्मसु जघन्यास्थतिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति । क्व तर्हि भवति? अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेसु विशुद्धिपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयसागरोपमसहनोनायामन्तः कोटाकोटिसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्चयोग्यो भवति (३) अपरा काललब्धिर्भवापेक्षया। भव्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञीपर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति। अर्थ- काललब्धि का स्वरूप कहा जाता है-(१) कर्मबद्ध भव्यात्मा अर्द्धपुद्गलपरिवर्तनसंज्ञक काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व-ग्रहण के योग्य होता है, अधिक काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण के योग्य नहीं होता। इस प्रकार यह एक काललब्धि हुई।(२) दूसरी काललब्धि कर्मस्थितिक है- कर्म उत्कृष्ट स्थिति वाला और जघन्य स्थिति वाला होने पर सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। यदि ऐसा है तो वह कब होती है? __ अन्तःकोटाकोटी सागरोपम स्थिति वाले कर्म जब होते हैं और जब विशुद्धि परिणाम के कारण संख्यात सागरोपमसहस्र कम अन्तःकोटाकोटीसागरोपम स्थिति वाले कर दिये जाते हैं तब जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। (३) भव की अपेक्षा से अन्य काललब्धि-भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक और सर्वविशुद्ध जीव प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति करता है। इस प्रकार तीन काललब्धियाँ होने पर सम्यक्त्व मात्र या सम्यक्त्व व संयम दोनों हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। सार- ऊपर जो सर्वार्थसिद्धि २/३ तथा तत्त्वार्थराजवार्तिक २/३/२ तथा अमितगति पंचसंग्रह संस्कृत १/२८६ तथा अनगार धर्मामृत टीका २/४६ का सार रूप संस्कृत प्रकरण देकर अर्थ किया है उसमें लिखा काललब्धि का स्वरूप उचित है। अतः मोक्षमार्गप्रकाशक का कथन सामान्य कथन है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337