Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 290
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६४ इहाँ कोऊ कहै- संसार दशाविषै पुण्यकर्मका उदय होते भी. जीव सुखी हो है, ताः केवल मोक्ष ही हित है, ऐसा काहेको कहिए? सांसारिक सुख दुःख ही है ताका समाधान- संसारदशाविषै सुख तो सर्वथा है ही नाही, दुःख ही है। परन्तु काहूके कबहूँ बहुत दुःख हो है, काहूकै कबहूँ थोरा दुःख हो है। सो पूर्वे बहुत दुःख था वा अन्य जीवनिकै बहुत दुःख पाइए है, तिस अपेक्षातै थोरे दुःखवालेको सुखी कहिए। बहुरि तिस ही अभिप्रायतै थोरे दुःखवाला आपको सुखी मानै है। परमार्थतें सुख है नाहीं। बहुरि जो थोरा भी दुःख सदाकाल रहै है, तो वाका भी हित ठहराइए, सो भी नाहीं । थोरे काल ही पुण्यका उदय रहै, तहाँ थोरा दुःख होय पोछै बहुत दुःख होइ जाय । तातै संसार अवस्था हितरूप नाहीं । जैसे काहूकै विषम ज्वर है, ताकै कबहू असाता बहुत हो है, कबहू थोरी हो है ।थोरी असाता होय, तब वह आपको नीका माने लोक भी कहैं-नीका है। परन्तु परमार्थत यावत् ज्वर का सद्भाव है, तावत् नीका नाहीं है। तैसे संसारीकै मोहका उदय है। ताकै कबहू आकुलता बहुत हो है, कबहू थोरी हो है, थोरी आकुलता होय तब तद अपको मुम्ही पाने लोग भी कहैं सुम्बी है ! परन्तु परमार्थत यावत् मोहका सद्भाव है, तावत् सुख नाहीं। बहुरि सुनि, संसार दशाविषै भी आकुलता घटे सुख नाम पावै है। आकुलता बधे दुःख नाम पावै है। किछू बाह्य सामग्रीतें सुख दुःख नाहीं। जैसे काहू दरिद्रीकै किंचित् धनकी प्राप्ति भई, तहाँ किछू आकुलता घटनेते दाको सुखी कहिए अर वह भी आपको सुखी माने। बहुरि काहू बहुत धनवानकै किंचित् थनकी हानि भई, तहाँ किछू आकुलता बधनेत वाको दुःखी कहिए अर वह भी आपको दुःखी माने है। ऐसे ही सर्वत्र जानना। बहुरि आकुलता घटना-बधना भी बाह्य सामग्री के अनुसार नाही, कषाय भावनिके घटने-बधनेके अनुसार है। विशेष : स्वयं पण्डित टोडरमलजी इसी ग्रन्थ के आठवें अधिकार में 'चरणानुयोग में दोषकल्पना का निराकरण' प्रकरण में लिखते हैं- "अथवा बाह्य पदार्थ का आश्रय पाय परिणाम होय सके है। तातै परिणाम मेटने के अर्थि बाह्य वस्तु का निषेध करना समयसारादि विषै कपा है। समयसार सदृश आध्यात्मिक ग्रन्थ में भी कहा है कि तत एव चाध्ययसानाश्रयभूतस्य बाझवस्तुनोऽत्यन्तप्रतिषेधः (कृतः)। हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत् प्रतिषेयात् । अर्थ : इसीलिए रागादि की आश्रयभूत बाह्यवस्तु का अत्यन्त निषेध किया है-त्याग कराया है। क्योंकि कारण के निषेध से ही कार्य का निषेध हो जाता है। ( स.सा. २६५) जैसे काहूकै थोरा धन है अर वाकै संतोष है, तो वाकै आकुलता-थोरी है। बहुरि काहूकै बहुत धन है अर वाकै तृष्णा है, तो वाकै आकुलता धनी है। बहुरि काहूको काहूने बहुत बुरा कह्या अर वाकै क्रोध

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