Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 304
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२७५ सम्यक्त्वका लक्षण कह्या सो हम मान्या परन्तु केवली सिद्ध भगवानकै तो सर्वका जानपना समानरूप है, तहाँ सप्ततत्त्वनिकी प्रतीति कहना सम्भवै नाहीं अर तिनकै सम्यक्त्व गुण पाइए ही है, तारौं तहाँ तिस लक्षणविष अव्याप्तिपना आया। ताका समाधान- जैसे छमस्थकै श्रुतज्ञान के अनुसार प्रतीति पाइए है, तैसे केवली सिद्धभगवानके केवलज्ञान के अनुसार प्रतीति पाइए है। जो सप्त तत्त्वनिका स्वरूप पहले टीक किया था, सो ही केवलज्ञानकरि जान्या। तहाँ प्रतीतिको परम अवगाड़पनो भयो । याहीतै परमअवगाढ़ सम्यक्त्व कह्या। जो पूर्व श्रद्धान किया था. लाको हाट नाय दोना तो तहाँ आतीति होती। सो तो जैसा सप्त तत्वनिका श्रद्धान छमस्थकै भया था, तैसा ही केवली सिद्ध भगवानकै पाइए है तातें ज्ञानादिककी हीनता अधिकता होतें भी तिर्यचादिक वा केवली सिद्ध भगवान तिनकै सम्यक्त्व गुण समान ही कहा।' बहुरि पूर्वअवस्थाविषै यहु मानै थे- संवर निर्जराकरि मोक्षका उपाय करना। पोछै मुक्त अवस्था भए ऐसे मानने लगे, जो संवर निर्जराकरि हमारे मोक्ष भई । बहुरि पूर्वे ज्ञान की हीनताकरि जीवादिकके थोड़े विशेष जानै था, पीछे केवलज्ञान भए तिनके सर्वविशेष जानै परन्तु मूलभूत जीवादिकके स्वरूपका श्रद्धान जैसा छद्मस्थकै पाइए है तैसा ही केवली के पाइए है। बहुरि यद्यपि केवली सिद्ध भगवान अन्यपदार्थनिको भी प्रीति लिए जाने है तथापि ते पदार्थ प्रयोजनभूत नाहीं। तारौं सम्यक्त्व गुणविषे सप्त तत्त्वनिहीका श्रद्धान ग्रहण किया है। केवली सिद्ध भगवान रागादिरूप न परिणमै हैं, संसार अवस्थाको न चाहै हैं। सो यह इस श्रद्धानका बल जानना। बहुरि प्रश्न- जो सम्यग्दर्शन को तो मोक्षमार्ग कया था, मोक्ष विषै याका सद्भाव कैसे कहिए है? ताका उत्तर-कोई कारण ऐसा भी हो है, जो कार्य सिद्ध भए भी नष्ट न होय। जैसे काहू वृक्ष कै कोई एक शाखाकरि अनेक शाखायुक्त अवस्था भई, तिसको होते वह शाखा नष्ट न हो है तैसे काहू आत्मा के सम्यक्त्व गुणकरि अनेकगुणयुक्त मुक्त अवस्था भई, ताको हो” सम्यक्त्व गुण नष्ट न हो है। ऐसे केवली सिद्ध भगवान के भी तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण ही पाइए है, तातै यहाँ अव्याप्तिपनो नाहीं है। तिर्यंच, मनुष्य तथा केवली के सामान्य (सदृश परिणाम) की अपेक्षा सभी सम्यग्दर्शनों में एकत्व है। विशेष (विसदृश परिणाम) की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के असंख्यात लोक प्रमाण भेद अनेकत्व) हैं ही। (विशेष हेतु देखो - पं. रतनचन्द मुख्तार : व्यक्तित्व और कृतित्य ग्रन्थ पृ. ३६३-३६५ तथा पृ. १७०) सभी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के सम्यक्त्व परिणाम समान ही होते हैं क्योंकि "क्षायिकभावानां न हानि पि वृद्धिरिति” (श्लोकवार्तिक १/१/४४-४१), क्षायिक भावों में न हानि होती है, न वृद्धि। इसी तरह प्रथम उपशम सप्यग्दृष्टि जीवों में भी परस्पर के लिए कहना चाहिए। परन्तु भायिक दर्शन तथा क्षयोपशम सम्यग्दर्शन रूप परिणाम परस्पर कभी समान नहीं होते। ___ इसी तरह क्षयोपशम (वेदक) सम्यग्दृष्टि जीवों के क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन रूप परिणाम भी परस्पर समान नहीं होते, क्योंकि क्षायोपशम सम्यक्त्व के असंख्यात लोक प्रमाण भेद होते । (थयला १/३६८) सारतः संसार के सभी जीवों में सम्यग्दर्शनों में समानता सर्वसम्यग्दृष्टिजीव व्यापी सामान्य सम्यग्दर्शनपने (सदृश परिणाम) की अपेक्षा ही है, अन्य प्रकार से नहीं।

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