Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 294
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६८ __बहुरि प्रश्न-जो सम्यक्त्व चारित्रका घातक मोह है, ताका अभाव भए बिना मोक्षका उपाय कैसे बनै? ताका उत्तर- तत्त्वनिर्णय करनेविषै उपयोग न लगावै, सो तो याहीका दोष है। बहुरि पुरुषार्धकार तत्त्वनिर्णयविष उपयोग लगावै, तब स्वयमेव ही मोहका अभाव भए सम्यक्वादिरूप मोक्षके उपायका पुरुषार्थ बनै है। सो मुख्यपने तो तत्त्वनिर्णयविषै उपयोग लगावनेका पुरुषार्थ करना, बहुरि उपदेश भी दीजिए है सो इस ही पुरुषार्थ करावने के अर्थि दीजिए है बहुरि इस पुरुषार्थत मोक्षके उपायका पुरुषार्थ आपहीते सिद्ध होयगा । अर तत्त्वनिर्णय न करनेविषे कोई कर्म का दोष है नाही, तेरा ही दोष है। अर तू आप तो महन्त रह्या चाहै अर अपना दोष कर्मादिककै लगावै, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नाहीं। तोको विषय-कषायरूपही रहना है, तातें झूठ बोल है। मोक्षकी सांची अभिलाषा होय, तो ऐसी युक्ति काहेको बनावै। संसारीक कार्यनिविणे अपना पुरुषार्थत सिद्धि न होती जानै तौ भी पुरुषार्थकरि उद्यम किया करे, यहाँ पुरुषार्थ खोय बैठे। सो जानिए है, मोक्षको देखादेखी उत्कृष्ट कहै है। वाका स्वरूप पहचानि ताको हितरूप न जाने है। हित जानि ताका उद्यम बनै सो न करै, यहु असम्भव है। द्रव्य और भाव कर्म की परम्परा में पुरुषार्थ के न होने का खण्डन इहाँ प्रश्न- जो तुम कह्या सो सत्य, परन्तु द्रव्यकर्म के उदयतें भायकर्म होय, भावकर्मत द्रव्यकर्म का बंध होय, बहुरि ताके उदयते भावकर्म होय, ऐसे ही अनादित परम्परा है, तब मोक्ष का उपाय कैसे होय सकै? ताका समाधान- कर्म का बंध वा उदय सदाकाल समान ही हुवा करै तो तो ऐसे ही है; परन्तु परिणामनिके निमित्तते पूर्वबद्ध कर्मका भी उत्कर्षण-अपकर्षण-संक्रमणादि होते तिनकी शक्ति हीन अधिक होय है तातै तिनका उदय भी मन्द तीन हो है। तिनके निमित्त" नवीन बंध भी मन्द तीव्र हो है । तातै संसारी जीवनिकै कर्मउदयके निमित्त करि कबहूँ ज्ञानादिक घने प्रगट हो हैं, कबहूँ थोरे प्रगट हो हैं। कबहूँ रागादिक मन्द हो हैं कबहूँ तीव्र हो है। ऐसे पलटनि हुवा करै है। तहाँ कदाचित् संझी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्याय पाया, तब मनकरि विचार करने की शक्ति भई । बहुरि याकै कबहूँ तीव्र रागादिक होय, कबहूँ मन्द होय । तहाँ रागादिकका तीव्र उदय होते तो विषयकषायादिकके कार्यनिविणे ही प्रवृत्ति होय । बहुरि रागादिकका मन्द उदय होते बाह्य उपदेशादिकका निमित्त बनै अर आप पुरुषार्थकरि तिन उपदेशादिक विषै उपयोगको लगावै तो धर्मकार्यनिविषै प्रवृत्ति होय। अर निमित्त न बनै वा आप पुरुषार्थ न करे, तो अन्य कार्यनिविष ही प्रवत्त परन्तु मन्द रागादि लिए प्रवत्त, ऐसे अवसरविषे उपदेश कार्यकारी है। विचारशक्तिरहित एकेन्द्रियादिक हैं, तिनिकै तो उपदेश समझनेका ज्ञान ही नाहीं। अर तीव्ररागादिसहित जीवनिका उपदेशविर्ष उपयोग लागै नाहीं। तातें जो जीव विचारशक्तिसहित होय अर जिनकै रागादि मंद होय, तिनको उपदेशका निमित्त धर्मकी प्राप्ति होय जाय, तो ताका भला होय। बहुरि इस ही अवसरविषे पुरुषार्थ कार्यकारी है। एकेन्द्रियादिक तो धर्मकार्य करने को समर्थ ही नाहीं, कैसे पुरुषार्थ करै अर तीव्रकषायी पुरुषार्थ करै सो पाप

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