Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 296
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२७० मोक्षमार्ग का स्वरूप जिनके निमित्ततें आत्मा अशुद्ध दशाको धारि दुःखी भया, ऐसे जो मोहादिक कर्म तिनिका सर्वथा नाश होते केवल आत्माकी जो सर्व प्रकार शुद्ध अवस्था का होना, सो मोक्ष है। ताका जो उपाय-कारण, सो मोक्षमार्ग जानना। सो कारण तो अनेक प्रकार हो हैं। कोई कारण तो ऐसे हो हैं, जाके भए बिना तो कार्य न होय अर जाके भए कार्य होय वा न भी होय। जैसे मुनिलिंग थारे बिना तो मोक्ष न होय अर मुनिलिंग धारे मोक्ष होय भी अर नाहीं भी होय। बहुरि केई कारण ऐसे हैं, जो मुख्यपने तो जाके भए कार्य होय अर काइके विना भए भी कार्यसिद्धि होय। जैसे अनशनादि बाझ तप का साधन किए मुख्यपने मोक्ष पाइए है, भरतादिकके बाम तप किए बिना ही भोक्षकी प्राप्ति भई। विशेष पूज्य भरत ने सर्वप्रथम अर्ककीर्ति को राज्य दिया था फिर उपवास ग्रहण कर जिनदीक्षा-नग्न मुद्रा धारण की, सिर के केशों का लोच किया, जो कि उग्र तप है' (केशलोच मूलगुण के साथ-साथ कायक्लेश नामक बाह्यतप स्वरूप भी है), फिर हिंसादि पापों की निवृत्तिरूप पंव महाव्रत ग्रहण किये। फिर दृढ़ आसनपूर्वक ध्यान में विराजमान होकर समस्त विकल्प रहित हुए और अन्तर्मुहूर्त में ही मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त किया। फिर अन्तर्मुहूर्त बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ। फिर सब देशों में चिरकाल तक विहार किया। आयु के अन्त में योगनिरोध कर मोक्ष गये। परन्तु स्तोक काल (अन्तर्मुहूर्त) में ही केवलज्ञान हो जाने से महाव्रत, मूलगुण, समिति, संयम तथा उभयविध तप की लोक में प्रसिद्धि नहीं हुई। पर भैया! तपःकर्म का जघन्य काल तो अन्तर्मुहूर्त ही है। किंच, भरत जी ने इस पर्याय में तो सूक्ष्मदृष्ट्या यह अल्पकालिक तथा अल्पतम बाह्य तप ही किया अतएव स्थूलतः “बाह्य तप बिना ही मुक्ति को गए" कहा जाता है। पर साथ ही साथ इसके पीछे भरतजी की पूर्व भव की साधना भी निहित है। भरतजी ने अपने कुछ भवों पूर्व की सिंह पर्याय में शिलातल पर शान्त भाव से बैठकर समाधि धारण की थी। उस सिंह ने • दिन तक आठ महोपवास रूप घोर तपश्चर्या की। फिर आयु के अन्त में परम शान्त भाव से देह-विसर्जन कर वह ईशान स्वर्ग में दिवाकरप्रभ देव हुआ था। इस प्रकार बहिरंग तपों का सर्वथा अतिक्रमण करके तो कोई भी जीव मोक्ष नहीं जाता। बहिरंग तप भी साधक के किंचित् कथंचित् बन ही जाते हैं। १. अ.आ. ६ पृष्ठ १२६ (जीवराज ग्रन्थमाला) तथा म.आ. २२२-२३ वी गाथा। २. मूलाधार प्रदीप ४/७५ ३. आदिपुराण पर्व ४७ श्लोक ३६३-६४-६५; ३८७-६८ तथा परमात्मप्रकाश २/५२ पृष्ठ १७३-७४ (राजचन्द्र शास्त्रमाला) ४. धवल १३/१०६ ५. आदिपुराण ८/२१ पृ. ३०१ (श्री महावीरजी प्रकाशन)

Loading...

Page Navigation
1 ... 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337