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नवमा अधिकार-२७३
अनात्माका यथार्थ ज्ञान होय, किछु दोष लागे नाहीं। ऐसे लक्षणका स्वरूप उदाहरण मात्र कह्या। उसब सम्यग्दर्शनादिकका सांचा लक्षण कहिए है
सम्यग्दर्शन का सच्चा लक्षण विपरीताभिनिवेश रहित जीवादिक तत्त्वार्थश्रद्धान सो सम्यग्दर्शनका लक्षण है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ए सात तत्त्वार्थ हैं। इनका जो श्रद्धान-ऐसे ही हैं, अन्यथा नाहीं; ऐसा प्रतीति भाव सो तत्त्वार्थ श्रद्धान है। बहुरि विपरीताभिनिवेश जो अन्यथा अभिप्राय ताकरि रहित सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ विपरीत्ताभिनिवेशका निराकरण के अर्थि 'सम्यक्' पद कह्या है, जाते 'सम्यक्' ऐसा शब्द प्रशंसावाचक है। सो श्रद्धानविष विपरीताभिनिवेशका अभाव भए ही प्रशंसा सम्भवै है, ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न- जो 'तत्त्व' अर 'अर्थ' ए दोय पद कहे, तिनिका प्रयोजन कहा?
ताका समाधान-'तत्' शब्द है सो 'यत्' शब्दकी अपेक्षा लिये है। तातै जाका प्रकरण होय सो तत् कहिए अर जाका जो भाव कहिए स्वरूप सो तत्त्व जानना। जाते 'लस्य मावस्तत्त्वं' ऐसा तत्त्व शब्द का समास होय है ।बहुरि जो जानने में आवै ऐसा 'द्रव्य' वा 'गुण पर्याय' ताका नाम अर्थ है। बहुरि 'तत्त्वेन अर्थस्तत्त्वार्थः' तत्त्व कहिए अपना स्वरूप, ताकरि सहित पदार्थ तिनिका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। यहाँ जो 'तत्त्व श्रद्धान' ही कहते तो जाका यह भाव (तत्त्व) है, ताका श्रद्धान विना केवल भावहीका श्रद्धान कार्यकारी नाहीं । बहुरि जो 'अर्थश्रद्धान' ही कहते तो भाव का श्रद्धान विना पदार्थ का श्रद्धान भी कार्यकारी नाहीं । जैसे कोईकै ज्ञान-दर्शनादिक वा वर्णादिकका तो श्रद्धान होय-यह जानपना है, यह श्वेतवर्ण है, इत्यादि प्रतीति हो है परन्तु ज्ञान दर्शन आत्माका स्वभाव है-सो मैं आत्मा हूँ, बहुरि वर्णादि पुद्गलका स्वभाव है, पुद्गल मोते भिन्न जुदा पदार्थ है-ऐसा पदार्थका श्रद्धान न होय तो भायका श्रद्धान कार्यकारी नाही। बहुरि जैसे 'मैं आत्मा हूँ' ऐसे श्रद्धान किया परन्तु आत्मा का स्वरूप जैसा है तैसा श्रद्धान न किया तो भावका श्रद्धान विना पदार्थका भी श्रद्धान कार्यकारी नाहीं। तातें तत्त्वकरि अर्थ का श्रद्धान हो है सोई कार्यकारी है। अथवा जीवादिकको तत्वसंज्ञा भी है अर अर्थ संज्ञा भी है तातै 'तस्वमेवार्थस्तत्त्वार्थः' जो तत्त्व सो ही अर्थ, तिनका श्रद्धान सो सम्यग्दर्शन है। इस अर्थकरि कहीं तत्त्वश्रद्धानको सम्पग्दर्शन कहै. वा कहीं पदार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहै, तहाँ विरोध न जानना। ऐसे 'तत्त्व' और 'अर्थ' दोय पद कहने का प्रयोजन है।
तत्त्व सात ही क्यों हैं बहुरि प्रश्न- जो तत्त्वार्थ तो अनन्ते हैं। ते सामान्य अपेक्षाकरि जीव-अजीवविष सर्व गर्भित भए, ताते दोय ही कहने थे, के अनंते कहने थे। आम्रवादिक तो जीव-अजीव ही के विशेष हैं, इनको जुदा कहने का प्रयोजन कहा?