Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 289
________________ नवमा अधिकार - २६३ तर्क नाहीं । आत्माका ऐसा ही स्वभाव जानना। देखो, दुःखी होय तब सूता चाहै, सो सोवने में ज्ञानादिक मरने में अपना मन्द हो जाय है परन्तु जड़ सरिखा भी होय दुःखको दूरि किया चाहे है वा मूआ चाहे । नाश माने है परन्तु अपना भी अस्तित्व खोय दुःख दूर किया चाहे है। तातै एक दुःखरूप पर्यायका अभाव करना ही याका कर्तव्य है । बहुरि दुःख न होय सो ही सुख है। जातैं आकुलतालक्षण लिए दुःख तिसका अभाव सोई निराकुल लक्षण सुख है। सो यहु भी प्रत्यक्ष भासै है । बाह्य कोई सामग्री का संयोग मिलो, जाकै अंतरंगविषे आकुलता है सो दुःखी ही है । जाकै आकुलता नाहीं सो सुखी है। बहुरि आकुलता हो है, सो रागादिक कषायभाव भये हो है । जातें रागादिभावनिकरि यहु तो द्रव्यनिकों और भाँति परिणमाया चाहै अर वे द्रव्य और भाँति परिणमें, तब याकै आकुलता होय तहाँ के तो आपकै रागादिक दृरि होय, कै आप चाहै तैसे ही सर्व द्रव्य परिणमै तो आकुलता मिटै। सो सर्वद्रव्य तो याके आधीन नाहीं । कदाचित् कोई द्रव्य जैसी याकी इच्छा होय तैसे ही परिणमै, तो भी याकी सर्वथा आकुलता दूरि न होय । सर्व कार्य चाका चाह्या ही होय, अन्यथा न होय, तब यहु निराकुल रहे। सो यहु तो होय ही सकै नाहीं । जातें कोई द्रव्यका परिणमन कोई द्रव्यके आधीन नाहीं तातें अपने रागादि भाव दूरि भए निराकुलता होय सो यहु कार्य बनि सके है। जातै रागादिक भाव आत्माका स्वभाव भाव तो है नाहीं, उपाधिकभाव हैं, परनिमित्ततै भए हैं, सो निमित्त मोहकर्मका उदय है। ताका अभाव भए सर्व रागादिक विलय होय जांय, तब आकुलता नाश भए दुःख दूरि होय सुखकी प्राप्ति होय । तातें मोहकर्मका नाश हितकारी है। बहुरि तिस आकुलताको सहकारी कारण ज्ञानावर्णादिकका उदय है। ज्ञानावर्ण दर्शनावर्णके उदयतें ज्ञानदर्शन सम्पूर्ण न प्रगटै, तातें याकै देखने जाननेकी आकुलता होय अथवा यथार्थ सम्पूर्ण वस्तुका स्वभाव न जाने, तब रागादिरूप होय प्रवर्ते, तहाँ आकुलता होय । बहुरि अंतरायके उदयतें इच्छानुसार दानादि कार्य न बने, तब आकुलता होय । इनिका उदय है, सो मोहका उदय होते आकुलताको सहकारी कारण है। मोहके उदयका नाश भए इनिका बल नाहीं । अंतर्मुहूर्त्तकालकर आप आप नाशको प्राप्त होय । परन्तु सहकारी कारण भी दूरि होय जाय, तब प्रगट रूप निराकुल दशा भासे । तहाँ केवलज्ञानी भगवान अनन्तसुखरूप दशाको प्राप्त कहिए । बहुरि अघाति कर्मनिका उदयके निमित्त शरीरादिकका संयोग हो है, सो मोहकर्म का उदय होत शरीरादिकका संयोग आकुलताको बाह्य सहकारी कारण है। अंतरंग मोहका उदयतें रागादिक होय अर बाह्य अघाति कर्मनिके उदय रागादिकको कारण शरीरादिकका संयोग होय, तब आकुलता उपजै है । बहुरि मोहका उदय नाश भए भी अघातिकर्मका उदय रहे है, सो किछू भी आकुलता उपजाय सकै नाहीं । परन्तु पूर्वी आकुलताका सहकारी कारण था, तातैं अघाति कर्मनिका भी नाश आत्माको इष्ट ही है। सो केवलीकै इनिके होते किछु दुःख नाहीं तातैं इनिके नाशका उद्यम भी नाहीं । परन्तु मोहका नाश भए ए कर्म आप आप थोरे ही कालमें सर्व नाशको प्राप्त होय जाय हैं। ऐसे सर्व कर्मका नाश होना आत्माका हित है। बहुरि सर्व कर्मके नाशहीका नाम मोक्ष है। सातैं आत्माका हित एक मोक्ष ही है और किछू नाहीं, ऐसा निश्चय करना ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337