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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४४
बहुरि चरणानुयोगविष छमस्थकी बुद्धिगोवर स्थूलपनाको अपेक्षा लोकप्रतिको मुख्यता लिए उपदेश दीजिए है। बहुरि केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनाकी अपेक्षा न दीजिए है, जारौं तिसका आचरण न होय सकै । यहाँ आचरण करावने का प्रयोजन है। जैसे अणुव्रतीकै त्रसहिंसाका त्याग कह्या अर वाकै स्त्रीसेवनादि क्रियानिविषे त्रसहिंसा हो है। यह भी जान है. जिनवानी विषै यहाँ त्रस कहे हैं परन्तु याकै त्रस मारने का अभिप्राय नाहीं अर लोकविषै जाका नाम सघात है, ताको करै नाहीं तातें तिस अपेक्षा वाके त्रसहिंसाका त्याग है। बहुरि मुनिक स्थावरहिंसाका भी त्याग कह्या, सो मुनि पृथ्वी जलादिविषै गमनादि करै है, तहाँ सर्वथा त्रसका भी अभाव नाहीं। जाते त्रसजीवकी भी अवगाहना ऐसी छोटी हो है, जो दृष्टिगोचर न आवै अर तिनकी स्थिति पृथ्वी जलादि विष ही है। सो मुनि जिनवानीत जाने हैं वा कदाचित् अवधिज्ञानादिकरि भी जानै है परन्तु याकै प्रमादत स्थावर त्रसहिंसाका अभिप्राय नाहीं । बहुरि लोकविष भूमि खोदना अप्रासुक जलते क्रिया करनी इत्यादि प्रवृत्तिका नाम स्थावरहिंसा है अर स्थूल त्रसनिके पीडने का नाम त्रसहिंसा है, ताको न करे। तातें मुनिकै सर्वथा हिंसा का त्याग कहिए है। बहुरि ऐसे ही अनृत, स्तेय, अब्रह्म, परिग्रह का त्याग कह्या। अर केवलज्ञानका जानने की अपेक्षा असत्यवचनयोग बारहवाँ गुणस्थान पर्यन्त कह्मा । अदत्तकर्मपरमाणु आदि परद्रव्यका ग्रहण तेरहवाँ गुणस्थान पर्यन्त है। वेदका उदय नवमगुणस्थान पर्यन्त है, अंतरंगपरिग्रह दसवाँ गुणस्थान पर्यन्त है। बाह्य परिग्रह समवसरणादि केवलीकै भी हो है परन्तु प्रमादते पापरूप अभिप्राय नाहीं अर लोकप्रवृत्तिविषै जिन क्रियानिकरि यहु झूट बोलै है, चोरी करै है, कुशील सेवै है, परिग्रह राखै है ऐसा नाम पावै, वे क्रिया इनकै हैं नाहीं । तातें अनृतादिकका इनिकै त्याग कहिए है । बहुरि जैसे मुनिके मूलगुणनिविष पंचइन्द्रियनिके विषय का त्याग करा सो जानना तो इन्द्रियनिका मिटै नाहीं अर विषयनिविषै रागद्वेष सर्वथा दूरि भया होय तो यथाख्यात चारित्र होय जाय सो भया नाहीं परन्तु स्थूलपने विषय इच्छा का अभाव भया अर बाह्य विषय सामग्री मिलावने की प्रवृत्ति दूरि भई तात याकै इन्द्रियविषयका त्याग कह्या । ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि व्रती जीव त्याग वा आचरण करै है, सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसारि वा लोक प्रवृत्तिके अनुसारि त्याग करै है। जैसे काहूने असहिंसा का त्याग किया, तहाँ चरणानुयोगविष वा लोकविध जाको त्रसहिंसा कहिए है, ताका त्याग किया है केवलज्ञानादिकरि जे त्रस देखिए हैं, तिनिकी हिंसा का त्याग बनै ही नाहीं । तहाँ जिस प्रसहिंसा का त्याग किया, तिसरूप मनका विकल्प न करना सो मनकरि त्याग है, वचन न बोलना सो वचनकरि त्याग है, कायकरि न प्रवर्तना सो कायकरि त्याग है। ऐसे अन्य त्याग वा ग्रहणहो है, सो ऐसी पद्धति लिए ही हो है, ऐसा जानना।
यहाँ प्रश्न-जो करणानुयोगविषै तो केवलज्ञान अपेक्षा तारतम्य कथन है, तहाँ छठे गुणस्थानि सर्वथा बारह अविरतिनिका अभाव कह्या, सो कैसे कह्या?
ताको उत्तर-अविरति भी योगकषायविषै गर्भित थे परन्तु तहाँ भी चरणानुयोग अपेक्षा त्यागका अभाव तिसहीका नाम अविरति कहा है। तात तहाँ तिनका अभाव है। मन अविरतिका अभाव कह्या, सो मुनिकै मनके विकल्प हो हैं परन्तु स्वेच्छाचारी मनकी पापरूप प्रवृत्तिके अभावते मनअविरतिका अभाव कह्या . है, ऐसा जानना।