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आठवाँ अधिकार-२५७
होनेते तो किंचित् दोषरूप होना बुरा नाहीं है तातें तुझसे तो वह भला है। बहुरि यहाँ यह कहा। "तू दोषमय ही क्यों न भया" सो यह तर्क करी है। किछू सर्व दोषमय होने के अर्थि यहु उपदेश नाहीं है। बहुरि जो गुणवान्के किंचित् दोष भए भी निन्दा है तो सर्वदोषरहित तो सिद्ध हैं, नीचली दशाविषे तो कोई गुण कोई दोष होय-ही-होय।
___ यहाँ कोऊ कहै- ऐसे है, तो “मुनिलिंग धारि किंचित् परिग्रह राखै तो भी निगोद जाय" ऐसा षट्पाहुड़ विर्ष कैसे कह्या है?
ताका उत्तर-ऊँची पदवी धारि तिस पदविषै न सम्भवता नीचा कार्य करै तो प्रतिज्ञाभंगादि होने” महादोष लागै है अर नीची पदवींविषै तहाँ सम्भवता गुणदोष होय तो होय, तहाँ वाका दोष ग्रहण करना योग्य नाहीं, ऐसा जानना।
बहुरि उपदेशसिद्धान्तरत्नमालाविषे कह्या-"आज्ञा अनुसार उपदेश देने वाले का क्रोध भी क्षमा का भंडार है।" सो यहु उपदेश वक्ता का ग्रहया योग्य नाहीं। इस उपदेशः वक्ता क्रोध किया करै तो वाका बुरा ही होय। यहु उपदेश श्रोतानिका ग्रहवा योग्य है। कदाचित् वक्ता क्रोधकरिकै भी साँचा उपदेश दे तो श्रोता गुण ही माने। ऐसे ही अन्यत्र जानना।
बहुरि जैसे काहूकै अतिशीतांग रोग होय, ताके अर्थ अति उष्ण रसादिक औषथि कही है, तिस औषधि को जाकै दाह होय वा तुच्छ शीत होय सो ग्रहण कर तो दुःख ही पावै । तैसे काहूकै कोई कार्य की अतिमुख्यता होय, ताके अर्थ तिसके निषेध का अति खींचकरि उपदेश दिया होय, ताको जाकै तिस कार्य की मुख्यता न होय वा धोरी मुख्यता होय तो ग्रहण करे तो बुरा ही होय । यहाँ उदाहरण- जैसे काहूकै शास्त्राभ्यास की अतिमुख्यता अर आत्मानुभव का उद्यम ही नाही, ताके अर्थि बहुत शास्त्राभ्यास निषेध किया , बहुरि जाके शास्त्राभ्यास नाही वा थोर शास्त्राभ्यास है सो जीव तिस उपदेश शास्त्राभ्यास छोड़े अर आत्मानुभवविषै उपयोग रहै नाहीं, तब वाका तो बुरा ही होय । बहुरि जैसे काहूकै यज्ञ स्नानादिककरि हिंसातें धर्म मानने की मुख्यता है, ताके अर्थ " जो पृथ्वी उलटै तो भी हिंसा किए पुण्यफल न होय", ऐसा उपदेश दिया। बहुरि जो जीव पूजनादि कार्यनिकरि किंचित् हिंसा लगावै अर बहुत पुण्य उपजाचे, सो जीव इस उपदेशतें पूजनादि कार्य छोड़े अर हिंसारहित सामायिकादि धर्मविर्षे उपयोग लागै नाही, तक वाका तो बुरा ही होय। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि जैसे कोई ओषधि गुणकारी है परन्तु आपके यावत् तिस औषधित हित होय, तावत् तिसका ग्रहण करे। जो शीत मिटे भी उष्ण औषधिका सेवन किया ही करै तो उल्टा रोग होय । तैसे कोई थर्म कार्य
१. जह जायस्वसरिसो तिलतुसमित्तं ण गहदि हनेसु । ___ जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ।।१८।। (सूत्रपाहुड़) २. रोसोवि खमाकोसो सत्तं भासल जस्सणधणस्स।
उस्सुत्तेण खमाविय दोस महामोहआदासो।।१४।।