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पोक्षमार्ग प्रकाशक-२४२
बहुरि सम्यग्ज्ञानके अर्थ जिनमतके शास्त्रनिका अभ्यास करना, अर्थ व्यंजनादि अंगनिका साथन करना इत्यादि उपदेश दीजिए है। बहुरि सम्यक्चारित्रके अर्थि एकोदेश वा सर्वदेशहिंसादि पापनिका त्याग करना, व्रतादि अंगनिको पालने, इत्यादि उपदेश दीजिए है। बहुरि कोई जीवको विशेष धर्मका साधन न होता जानि एक आखड़ी आदिकका ही उपदेश दीजिए है। जैसे भीलको कागलाका मांस छुड़ाया, गुवालियाको नमस्कार मन्त्र जपने का उपदेश दिया, गृहस्थको चैत्यालय पूजा-प्रभायनादि कार्यका उपदेश दीजिये है, इत्यादि जैसा जीव होय ताको तैसा उपदेश दीजिए है।
___ बहुरि जहाँ निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश होय, तहाँ सम्यग्दर्शन के अर्थि यथार्थ तत्त्वनिका श्रद्धान कराईए है। तिनका जो निश्चय स्वरूप है सो भूतार्थ है। व्यवहार स्वरूप है सो उपचार है। ऐसा श्रद्धान लिए वा स्वपरका भेदविज्ञानकरि परद्रव्यविषै रागादि छोड़ने का प्रयोजन लिए तिन तत्त्वनि का श्रद्धान करनेका उपदेश दीजिए है। ऐसे श्रद्धानत अरहंतादि बिना अन्य देवादिक झूठ भासै तब स्वयमेव तिनका मानना छूट है, ताका भी निरूपण करिए है। बहुरि सम्यम्हानके भर्थि संशयादिरहिन तिनहीं तत्त्वनिका तैसे ही जाननेका उपदेश दीजिए है, तिस जाननेको कारण जिनशास्त्रनिका अभ्यास है। तातें तिस प्रयोजनके अर्थि जिनशास्त्रनिका भी अभ्यास स्वयमेव हो है, ताका निरूपण करिए है। बहुरि सम्यक्चारित्रके अर्थि रागादि दूरि करनेका उपदेश दीजिए है। तहाँ एकदेश वा सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव भए तिनके निमित्ततें होती थी जे एकदेश सर्वदेश पापक्रिया, ते छूटे हैं : बहुरि मंदरागते श्रावकमुनिके व्रतनिकी प्रवृत्ति हो है। बहुरि मंदरागादिकनिका भी अभाव भए शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति हो है, ताका निरूपण करिए है। बहुरि यथार्थ श्रद्धान लिए सम्यग्दृष्टीनिकै जैसे यथार्थ कोई आखड़ी हो है वा भक्ति हो है वा पूजा प्रभावनादिक कार्य हो है, वा ध्यानादिक हो है, तिनका उपदेश दीजिए है। जैसा जिनमतविथै सांची परम्परा मार्ग है, तैसा उपदेश दीजिए है। ऐसे दोय प्रकार उपदेश चरणानुयोगविष जानना।
___ बहुरि चरणानुयोगविषे तीव्रकषायनिका कार्य छुड़ाय मंदकषाय रूप कार्यकरनेका उपदेश दीजिए है। यद्यपि कषाय करना बुरा ही है, तथापि सर्वकषाय न छूटते जानि जेते कषाय घटै तितना ही मला होगा, ऐसा प्रयोजन तहाँ जानना। जैसे जिन जीवनिकै आरम्भादि करने की वा मंदिरादि बनावनेकी वा विषय सेवनेकी वा क्रोधादि करनेकी इच्छा सर्वथा दूरि न होती जाने, तिनको पूजा-प्रभावनादिक करनेका वा चैत्यालयादि बनावनेका वा जिनदेवादिकके आगे शोभादिक नृत्यगानादि करनेका वा धर्मात्मा पुरुषनिकी सहायादि करनेका उपदेश दीजिए है। जाते इनिविषे परम्परा कषायका पोषण न हो है। पापकार्यनिविषै परम्परा कषाय पोषण हो है, तातें पापकार्यनित छुड़ाय इन कार्यनिविषै लगाईए है। बहुरि थोरा बहुत जेता छूटता जाने, तितना पापकार्य छुड़ाय सम्यक्त वा अणुव्रतादि पालनेका तिनको उपदेश दीजिए है। बहुरि जिन जीवनिकै सर्वथा आरम्भादिककी इच्छा दूरि भई, तिनको पूर्वोक्त पूजादिक कार्य वा सर्व पापकार्य छुड़ाय महाव्रतादि क्रियानिका उपदेश दीजिए है। बहुरि किंचित रागादिक छूटता न जानि, तिनको दया धर्मोपदेश प्रतिक्रमणादि कार्य करने का उपदेश दीजिए है। जहाँ सर्व राग दूरि होय, तहाँ किछू करने का कार्य ही रह्या नाहीं। तातै तिनको किछू उपदेश ही नाहीं। ऐसे क्रम जानना।