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आरा आंधकार-२४१
नाना प्रकार उपचार धर्मके भेदादिक याविषै निरूपण करिए है। जाते निश्चय धर्मविषै तो किछू ग्रहण त्यागका विकल्प नाही अर याकै नीचली अवस्थाविर्ष विकल्प छूटता नाही, तातें इस जीवको धर्मविरोधी कार्यनिको छुड़ाबनेका अर थर्मसाधनादि कामिक ग्रहण करने का माश गा वि है ! सो उपदेश दोय प्रकार दीजिए है। एक तो व्यवहारहीका उपदेश दीजिए है, एक निश्चय सहित व्यवहार का उपदेश दीजिए है। तहाँ जिन जीवनिकै निश्चयका ज्ञान नाहीं है या उपदेश दिए भी न होता दीसै ऐसे मिथ्यादृष्टी जीव किछू धर्मको सन्मुख भए तिनको व्यवहारहीका उपदेश दीजिए है।
बहुरि जिन जीवनिकै निश्चय-व्यवहारका ज्ञान है या उपदेश दिए तिनका ज्ञान होता दीसे है, ऐसे सम्यग्दृष्टी जीव वा सम्यक्त को सन्मुख मिथ्यादृष्टी जीव तिनको निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश दीजिए है। जात श्रीगुरु सर्व जीवनिके उपकारी हैं। सो असंज्ञी जीव तो उपदेश ग्रहणे योग्य नाही, तिनका तो उपकार इतना ही किया और जीदनिको तिनकी दयाका उपदेश दिया। बहुरि जे जीव कर्मप्रबलतात निश्चयमोक्षमार्गको प्राप्त होय सकै नाही, तिनका इतना ही उपकार किया-जो उनको व्यवहार धर्मका उपदेश देय कुगतिके दुःखनिका कारण पापकार्य छुड़ाय सुगतिके इन्द्रियसुखनिका कारण पुण्यकार्यनिविर्ष लगाया। जेता दुःख मिट्या तितना ही, उपकार भया। बहुरि पापीकै तो पापवासना ही रहै अर कुगतिविर्ष जाय तहाँ धर्मका निमित्त नाहीं। तातै परम्पाय दुःखहीको पाया करै। अर पुण्ययानकै धर्मवासना रहै अर सुगति विष जाय, तहाँ धर्म के निमित्त पाईए, तातै परम्पराय सुखको पावै । अथया कर्मशक्ति हीन होय जाय तो मोक्षमार्गको भी प्राप्त होय जाय । तातै व्यवहार उपदेशकरि पापतै छुड़ाय पुण्यकार्यनिविष लगाईए
बहुरि जे जीव मोक्षमार्गको प्राप्त भये वा प्राप्त होने योग्य हैं, तिनका ऐसा उपकार किया जो उनको निश्चयसहित व्यवहारका उपदेश देय मोक्षमार्गविर्षे प्रवाए । श्रीगुरु तो सर्वका ऐसा ही उपकार करै। परन्तु जिन जीवनिका ऐसा उपकार न बनै तो श्रीगुरु कहा करे। जैसा बन्या तैसा ही उपकार किया। तातें दोय प्रकार उपदेश दीजिए है। तहाँ व्यवहार उपदेशविर्ष तो बाह्य क्रियानिहीकी प्रधानता है। तिनका उपदेशते जीव पापक्रिया छोड़ि पुण्यक्रियानिविष प्रवतै। सहाँ क्रियाके अनुसार परिणाम मी तीव्रकषाय छोड़ि किछू मंदकषायी होय जाय। सो मुख्यपने तो ऐसे है। बहुरि काहूके न होय तो मति होहु । श्रीगुरु तो परिणाम सुधारनेके अर्थि बालक्रियानिको उपदेश है।
बहुरि निश्चयसहित व्यवहारका उपदेशविषै परिणामनिहीकी प्रधानता है। ताका उपदेशः तत्त्वज्ञानका अभ्यासकरि वा वैराग्य भावनाकरि परिणाम सुधार, तहाँ परिणामके अनुसारि बाह्यक्रिया भी सुथरि जाय। परिणाम सुधरे बाह्यक्रिया सुधरै ही सुधरै । तातै श्रीगुरु परिणाम सुधारनेको मुख्य उपदेशै हैं । ऐसे दोय प्रकार उपदेशविषै जहाँ व्यवहारही का उपदेश होय तहाँ सम्यग्दर्शनके अर्थि अरहंत देव, निर्ग्रन्थ गुरु,दया धर्मको ही मानना, औरको न मानना। बहुरि जीवादिक तत्त्वनिका व्यवहारस्वरूप कह्या है ताका श्रद्धान करना, शंकादि पच्चीस दोष न लगावने, निशंकितादिक अंग वा संवेगादिक गुण पालने, इत्यादि उपदेश दीजिए है।