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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४०
आम्नाय लिए कथन होय तो तिनका मन लागे । बहुरि जे तुच्छबुद्धि हैं, तिनको पंडित समझाय दें, अर जे न समझि सके, तो तिनको मुख सूधा ही कथन कहै। परन्तु ग्रन्थनिविषै सूधा कथन लिखै विशेषबुद्धि तिनका अभ्यासविषै विशेष न प्रवत्त । तातै अलंकारादि आम्नाय लिए कथन कीजिए है। ऐसे इन व्यारि अनुयोगनिका निरूपण किया।
बहुरि जिनमतविष घने शास्त्र तो इन च्यारों अनुचोगनिविषै गर्भित हैं। बहुरि व्याकरण न्याय छन्द कोशादिक शास्त्र वा वैद्यक ज्योतिष मन्त्रादि शास्त्र भी जिनपतविषै पाईए है। तिनका कहा प्रयोजन है, सो सुनहु
व्याकरण न्यायादिकका अभ्यास भए अनुयोगरूप शास्त्रनिका अभ्यास होय सकै है। ताते व्याकरणादि शास्त्र कहे हैं।
कोऊ कहै- भाषारूप सूधा निरूपण करते तो व्याकरणादिकका कहा प्रयोजन था?
ताका उत्तर- भाषा तो अपभ्रंशरूप अशुद्ध वाणी है। देश-देश विषै और-और है। सो महंत पुरुष शास्त्रनिविषै ऐसी रचना कैसे करै। बहुरि व्याकरण न्यायादिकरि जैसा यथार्थ सूक्ष्म अर्थ निरूपण हो है, तैसा सूधी भाषाविषै होय सकै नाहीं। तातें व्याकरणादि आम्नायकरि वर्णन किया है। सो अपनी बुद्धि अनुसारे थोरा बहुत इनिका अभ्यासकरि अनुयोगरूप प्रयोजनभूत शास्त्रनिका अभ्यास करना। बहुरि वैधकादि चमत्कारतें जिनमतकी प्रभावना होय वा औषधादिक ते उपकार भी बने। अथवा जे जीव लौकिक कार्यविषै अनुरक्त हैं ते वैद्यकादिक चमत्कार” जैनी होय पीछै साँचा धर्म पाय अपना कल्याण करै । इत्यादि प्रयोजन लिए वैद्यकादि शास्त्र कहे हैं। यहाँ इतना है-ए भी जिनशास्त्र हैं, ऐसा जानि इनका अभ्यासविर्ष बहुत लगना नाहीं । जो बहुत बुद्धितै इनिका सहज जानना होय अर इनिको जाने आपकै रागादिक विकार बधते न जाने, तो इनिका भी जानना होहु । अनुयोग शास्त्रवत् ए शास्त्र बहुत कार्यकारी नाहीं । तातै इनिका अभ्यासका विशेष उद्यम करना युक्त नाहीं।
यहाँ प्रश्न- जो ऐसे हैं तो गणधरादिक इनकी रचना काहेको करी?
ताका उत्तर- पूर्वोक्त किंचित् प्रयोजन जानि इनकी रचना करी। जैसे बहुत धनवान कदाचित स्तोक कार्यकारी वस्तु का भी संचय करै। बहुरि थोरा धनवान उन वस्तुनिका संचय करें तो धन तो तहां लगि जाय, बहुत कार्यकारी वस्तुका संग्रह काहेरौं करे। तैसे बहुत बुद्धिमान गणधरादिक कथंचित् स्तोककार्यकारी वैद्यकादि शास्त्रनिका भी संचय करै। थोरा बुद्धिमान उनका अभ्यासविष लगै तो तहाँ लगि जाय, उत्कृष्ट कार्यकारी शास्त्रनिका अभ्यास कैसे करै? बहुरि जैसे मंदरागी तो पुराणादिविषे शृंगारादि निरूपण करै तो भी विकारी न होय, तोवरागी तैसे शृंगारादि निरूपै तो पाप ही बाँधै। तैसे मंदरागी गणधरादिक हैं ते वैद्यकादि शास्त्र निरूपै तो भी विकारी न होय, तीव्ररागी तिनका अभ्यासविषै लगि जाय तो रागादिक बधाय पापकर्मको बाँधे, ऐसे जानना। या प्रकार जैनमतके उपदेशका स्वरूप जानना।
अब इनविषे दोषकल्पना कोई करै है, ताका निराकरण कीजिए है