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आठवाँ अधिकार २४६
प्रथमानुयोग में दोष - कल्पना का निराकरण
केई जीव कहे हैं- प्रथमानुयोगविषै शृंगारादिकका वा संग्रामादिकका बहुत कथन करै, तिनके निमित्त रागादिक बंध जाय, तार्तें ऐसा कथन न करना था वा ऐसा कथन सुनना नाहीं । ताको कहिए हैकथा कहनी हो तब तो सर्व ही अवस्था का कथन किया चाहिए। बहुरि जो अलंकारादिकरि बधाय कथन करे हैं सो पंडितनिके बचन युक्ति लिए ही निकसै I
अर जो तू कहेगा, सम्बन्ध मिलावने को सामान्य कथन किया होता, वधाकरि कपन काहे को
किया?
ताका उत्तर यहु है जो परोक्षकथनको बधाय कहे बिना बाका स्वरूप भासै नाहीं । बहुरि पहले तो भोग-संग्रामादि ऐसे किये, पीछे सर्वका त्यागकर मुनि भए, इत्यादि चमत्कार तबही भासै जब बधाय कथन कीजिए । बहुरि तू कहै है, ताके निमित्त रागादिक बधि जाय । सो जैसे कोऊ चैत्यालय बनावै, सो चाका तो प्रयोजन तहाँ धर्मकार्य करावनेका है अर कोई पापी तहाँ पापकार्य करे तो चैत्यालय बनानेवालेका तो दोष नाहीं । तैसे श्रीगुरू पुराणादिविषै शृंगारादि वर्णन किए, तहाँ उनका प्रयोजन रागादिक करावनेका तो है नाहीं, धर्मविषै लगावने का प्रयोजन है। अर कोई पापी धर्म न करें अर रागादिक ही बधावै, तो श्रीगुरुका कहा दोष है?
बहुरि जो तू कहै जो रागादिकका निमित्त होय सो कथन ही न करना था ।
ताका उत्तर यह है- सरागी जीवनिका मन केवल वैराग्य कथनविषै लागे नाहीं । तातैं जैसे बालकको पतासाके आश्रय औषधि दीजिए, तैसे सरागीको भोगादि कथनके आश्रय धर्मविषै रुचि कराईए है ।
बहुरि तू कहेगा- ऐसे है तो विरागी पुरुषनिको तो ऐसे ग्रंथनिका अभ्यास करना युक्त नाहीं । ताका उत्तर यहु है - जिनकै अन्तरंगविषै रागभाव नाहीं, तिनके श्रृंगारादि कथन सुने रागादि उपजे ही नाहीं । यहु जाने ऐसे ही यहाँ कथन करने की पद्धति है ।
बहुरि तू कहेगा- जिनके शृंगारादि कथन सुने रागादि होय आवै, तिनको तो वैसा कथन सुनना योग्य नाहीं ।
ताका उत्तर यहु है - जहाँ धर्मही का तो प्रयोजन अर जहाँ तहाँ धर्म को पोषै ऐसे जैनपुराणादिक तिनविषे प्रसंग पाय शृंगारादिकका कथन किया, ताको सुने भी जो बहुत रागी भया तो वह अन्यत्र कहाँ विरागी होसी, पुराण सुनना छोड़ि और कार्य भी ऐसा ही करेगा जहाँ बहुत रागादि होय । तातें वाकै भी पुराण सुने थोरी बहुत धर्मबुद्धि होय तो होय और कार्यनित यहु कार्य भला ही है ।
बहुरि कोई कहै - प्रथमानुयोगविषे अन्य जीवनिकी कहानी है, तातैं अपना कहा प्रयोजन सधै है ? ताको कहिए है- जैसे कामीपुरुषनिकी कथा सुने आपके भी काम का प्रेम बयै है, तैसे धर्मात्मा पुरुषनिकी कथा सुने आपके धर्म की प्रीति विशेष हो है । तातें प्रथमानुयोगका अभ्यास करना योग्य है।