Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 266
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२४० गमनादिक्रियारहित भया, तहाँ भी ताकै योग बहुत कह्या । बेंद्रियादिक जीव गमनादि करै है, तो भी तिनकै स्तोक कहै। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं जाकी व्यक्तता किछू न भासै, तो भी सूक्ष्मशक्ति के सद्भाव ताका तहाँ अस्तित्व कह्या । जैसे मुनिकै अब्रह्मकार्य किछू नाहीं, तो भी नवम गुणस्थानपर्यन्त मैथुनसंज्ञा कही। अहमिंद्रनिकै दुःख का कारण व्यक्त नाही, तो भी कदाचित् असाता का उदय का। नारकीनिकै सुख का कारण व्यक्त नाही, तो भी कदाचित् साता का उदय कह्या। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि करणानुयो। सयदर्शन-शान पारिवादिक यनं का निरूपण कर्मप्रकृतिनिका उपशमादिक की अपेक्षा लिये सूक्ष्मशक्ति जैसे पाइए तैसे गुणस्थानादिविषे निरूपण करै है वा सम्यग्दर्शनादिक के विषयभूत जीवादिक तिनका भी निरूपण सूक्ष्मभेदादि लिये कर है। यहाँ कोई करणानुयोग के अनुसारे आप उद्यम करै तो होय सकै नाहीं। करणानुयोगविषै तो यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है, आवरण करावने की मुख्यता नाहीं। तात यहु तो चरणानुयोगादिक के अनुसार प्रवर्ते, तिसतें जो कार्य होना है सो स्वयमेव ही होय है। जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहै तो कैसे होय? आप तो तत्त्वादिक का निश्चय करने का उद्यम करे, तातें स्वयमेव ही उपशमादे सम्यक्त होय। ऐसे ही अन्यत्र जानना। एक अन्तर्मुहूर्त्तविषै ग्यारहवाँ गुणस्थान स्यों पड़ि क्रमः मिथ्यादृष्टी होय बहुरि चढिकर केवलज्ञान उपजावै। सो ऐसे सम्यक्त्वादिक के सूक्ष्मभाय बुद्धिगोचर आवते नाहीं, तातै करणानुयोग के अनुसारि जैसा का तैसा जानि तो ले अर प्रवृत्ति बुद्धिगोचर जैसे भला होय तैसे करे। बहुरि करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये व्याख्यान हो है, ताको सर्वथा तैसे ही न मानना । जैसे हिंसादिकका उपाय को कुमतिज्ञान कह्या, अन्यमतादिक के शास्त्राभ्यास को कुश्रुतज्ञान कह्या, बुरा दीसै भला न दीसै ताको विभंगज्ञान कह्या, सो इनको छोड़ने के अर्थि उपदेशकरि ऐसे कह्या । तारतम्यते मिथ्यादृष्टीकै सर्व ही ज्ञान कुज्ञान है, सम्यग्दृष्टीकै सर्व ही ज्ञान सुज्ञान है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं स्थूल कथन किया होय, ताको तारतम्यरूप न जानना। जैसे व्यासते तिगुणी परिधि कहिए, सूक्ष्मपने किछू अधिक तिगुणी हो है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कहीं मुख्यता की अपेक्षा व्याख्यान होय, ताको सर्व प्रकार न जानना जैसे मिथ्यादृष्टी सासादन गुणस्थानयालेको पापजीव कहे, असंयतादि गुणस्थानवालेको पुण्यजीव कहे सो मुख्यपने ऐसे कहे, तारतम्यते दोऊनिकै पाप पुण्य यथासम्भव पाईए है। ऐसे ही अन्यत्र जानना। ऐसे ही और भी नाना प्रकार पाईए है, ते यथासम्भव जानने। ऐसे करणानुयोगविषै व्याख्यानका विधान दिखाया। अब धरणानुयोगविषै किस प्रकारका व्याख्यान है, सो दिखाईए है चरणानुयोग में व्याख्यान का विधान चरणानुयोगविषै जैसे जीवनिकै अपनी बुद्धिगोवर धर्मका आचरण होय सो उपदेश दिया है। तहाँ ।। धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है सोई है। ताके साधनादिक उपचारनै धर्म है सो व्यवहारनयकी प्रधानताकरि

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