________________
मोक्षमार्ग प्रकाशक - २३८.
बहुरि करणानुयोगविषे यद्यपि वस्तु के क्षेत्र, काल भावादिक अखंडित हैं, तथापि छद्मस्थको हीनाधिक ज्ञान होनेके अर्थि प्रदेश समय अविभागप्रतिच्छेदादिककी कल्पनाकरि तिनका प्रमाण निरूपिए है। बहुरि एक वस्तुविषे जुदे - जुदे गुणनिका वा पर्यायनिका भेदकरि निरूपण कीजिए है। बहुरि जीव पुद्गलादिक यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं, तथापि सम्बन्धादिककरि अनेक द्रव्यकार निपज्या गति जाति आदि भेद तिनको एक जीवके निरूपै हैं, इत्यादि व्यवहार नयकी प्रधानता लिये व्याख्यान जानना । जातैं व्यवहारबिना विशेष जनि सकै नाहीं । बहुरि कहीं निश्चयवर्णन भी पाइए है। जैसे जीवादिक द्रव्यनिका प्रमाण निरूपण किया, सो जुदे - जुदे इतने ही द्रव्य हैं। सो यथासम्भव जानि लेना ।
बहुरि करणानुयोगविषै जे कथन हैं ते केई तो छद्मस्थ के प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होय, बहुरि जे न होय तिनको आज्ञा प्रमाणकरि मानने। जैसे जीव पुद्गलके स्थूल बहुत कालस्थायी मनुष्यादि पर्याय वा घटादि पर्याय निरूपण किए, तिनका तो प्रत्यक्ष अनुमानादि होय सकै, बहुरि समय- समय प्रति सूक्ष्म परिणमन अपेक्षा ज्ञानादिकके वा स्निग्ध रूक्षादिकके अंश निरूपण किए ते आज्ञाही प्रमाण हो हैं। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
बहुरि करणानुयोगविषै छद्मस्थनिकी प्रवृत्ति के अनुसार वर्णन किया नाहीं, केवलज्ञानगम्य पदार्थनिका निरूपण है। जैसे केई जीव तो द्रव्यादिक का विचार करें हैं वा व्रतादिक पाले हैं परन्तु तिनकै अन्तरंग सम्यक्त चारित्रशक्ति नाहीं, तातैं उनको मिथ्यादृष्टि अव्रती कहिए है। बहुरि केई जीव द्रव्यादिकका वा व्रतादिकका विचार रहित हैं, अन्य कार्यनिविषै प्रवर्त्ते हैं वा निद्रादिकरि निर्विचार होय रहे हैं परन्तु उनकै सम्यक्तादि शक्तिका सद्भाव है, तातैं उनको सम्यक्त्वी वा व्रती कहिए है। बहुरि कोई जीवकै कषायनिकी प्रवृत्ति तो घनी है अर वाकै अन्तरंग कषायशक्ति थोरी है, तो वाको मंदकषायीकहिए है। अर कोई जीवके कषायनिकी प्रवृत्ति तो थोरी है अर वाकेँ अन्तरंग कषायशक्ति घनी है, तो वाको तीव्रकषाय कहिए है । जैसे व्यन्तरादिक देव कषायनितें नगरनाशादि कार्य करे, तो भी तिनकै थोरी कषायशक्तितें पीतलेश्या कही । बहुरि एकेन्द्रियादिक जीव कषायकार्य करते दीखे नाहीं, तिनकै बहुत कषायशक्तितें कृष्णादि लेश्या कही । बहुरि सर्वार्थसिद्धि के देव कषायरूप थोरे प्रवर्तै, तिनकै बहुत कषायशक्तिर्ते असंयम कह्या अर पंचमगुणस्थानी व्यापार अब्रह्मादि कषायकार्यरूप बहुत प्रवर्त्ती, तिनकै मन्दकषाय शक्ति देशसंयम कह्या अर ऐसे ही अन्यत्र
जानना ।
विशेष- यहाँ पण्डित टोडरमल जी ने स्थूलदृष्टि से ऐसा कहा है। सूक्ष्म विवेचन इस प्रकार है- देव पंचेन्द्रिय संज्ञी हैं तथा एकेन्द्रिय जीव स्थावर हैं। इसलिए ( १ ) एकेन्द्रियों की कषाय से पंचेन्द्रियों की कषाय अनन्तगुणी होती है तथा एकेन्द्रिय के योग से भी संज्ञी पंचेन्द्रियों का योग असंख्यात गुणा होता है। [ धवल १४ / ४२७ तथा धवल १० पृ. ३४ } (२) एकेन्द्रियों के स्थितिबन्ध एक सागरोपम होता है तथा पंचेन्द्रिय संज्ञी के स्थितिबन्ध ७० कोटा कोटी सागर होता है [ रा. वा. ८/१४ - २०, महाथवल २।२४।१७-२६, धवल ६ १६६, थवल ११।२२५ से २२८, गो. क. मुख्तारी सम्पादन, स्थितिबन्ध प्रकरण आदि } अतः एकेन्द्रिय के स्थितिबन्ध से संज्ञी पंचेन्द्रिय का