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आठवाँ अधिकार-२३७
प्रशंसा करी। इस छलकरि औरनिको ऊँचा धर्म छोड़ि नींचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं। बहुरि जैसे गुवालिया मुनिको अग्नि करि तपाया सो करुणातें यह कार्य किया। परन्तु आया उपसर्गको तो दूरि करे, सहज अवस्थाविषै जो शीतादिककी परीषह हो है, ताको दूर किए रति माननेका कारण होय, उनको रति करनी नाहीं, तब उलटा उपसर्ग होय । याहीतै विवेकी उनके शीतादिकका उपचार करते नाहीं । गुवालिया अविवेकी था, करुणाकरि यह कार्य किया, ताते याकी प्रशंसा करी। इस छलकार औरनिको धर्मपद्धति विष जो विरुद्ध होय सो कार्य करना योग्य नाहीं। बहुरि जैसे बजकरण राजा सिंहोदर राजाको नम्या नाहीं, मुद्रिकाविर्ष प्रतिमा राखी। सो बड़े-बड़े सम्यग्दृष्टी राजादिकको नमै, याका दोष नाही अर मुद्रिकाविषै प्रतिमा राखने में अविनय होय, यथावत् विधितैं ऐसी प्रतिमा न होय, ताः इस कार्यविषै दोष है। परन्तु वाकै ऐसा ज्ञान न था, धर्मानुराग” मैं औरको नमूं नाहीं, ऐसी बुद्धि भई, तातै वाकी प्रशंसा करी। इस छलकरि औरनिको ऐसे कार्य करने युक्त नाहीं। बहुरि केई पुरुषों ने पुत्रादिककी प्राप्तिके अर्थि वा रोग-कष्टादि दूरिकरने के अर्थि चैत्यालय पूजनादि कार्य किए, स्तोत्रादि किए, नमस्कार मन्त्र स्मरण किया। सो ऐसे किए तो निकासित गुग का लगाया किमलंगामा गाभ्यान होय पापहीका प्रयोजन अंतरंगविषे है, तातै पापहीका बंध होई। परन्तु मोहित होयकरि भी बहुत पापबंध का कारण कुदेवादिकका तो पूजनादि न किया, इतना वाका गुण ग्रहणकरि वाकी प्रशंसा करिए है, इस छलकार औरनिको लौकिक कार्यनिके अर्थि धर्मसाधन करना युक्त नाहीं। ऐसे ही अन्यत्र जानने। ऐसे ही प्रथमानुयोगविष अन्य कथन भी होय, ताको यथासम्भव जानि भ्रम रूप न होना। अब करणानुयोगविष किस प्रकार व्याख्यान है, सो कहिये है
करणानुयोग में व्याख्यान का विधान जैसे केवलज्ञानकरि जान्या तैसे करणानुयोगविषै व्याख्यान है। बहुरि केवलज्ञानकरेि तो बहुत जान्या परन्तु जीवको कार्यकारी जीव कर्मादिकका वा त्रिलोकादिकका ही निरूपण या विष हो है। बहुरि तिनका भी स्वरूप सर्व निरूपण न होय सके, तात जैसे वचनगोचर होय छमस्थके ज्ञानविषै उनका किछू भाव भासे तैसे संकोचन करि निरूपण करिए है। यहाँ उदाहरण- जीवके भावनिकी अपेक्षा गुणस्थानक कहे, ते भाव अनन्तस्वरूप लिये, वचनगोचर नाहीं। तहाँ बहुत भावनिकी एक जातिकरि चौदह गुणस्थान कहे । बहुरि जीव जाननेके अनेक प्रकार हैं। तहाँ मुख्य चौदह मार्गणाका निरूपण किया। बहुरि कर्मपरमाणु अनन्तप्रकार शक्तियुक्त हैं, तिनविषै बहुतनिकी एक जाति करि आट वा एक सौ अड़तालीस प्रकृति कही। बहुरि त्रिलोकविषे अनेक रचना हैं, तहाँ मुख्य केतीक रचना निरूपण करिए है। बहुरि प्रमाण के अनन्त भेद तहाँ संख्यातादि तीन भेद वा इनके इक्कीस भेद निरूपण किए', ऐसे ही अन्यत्र जानना।
१. संख्यात, असंख्यात, अनन्त । असंख्यात के तीन भेद-१. परीतासंख्यात २. युक्तासंख्यात ३. असंख्यातासंख्यात अनन्त
के तीन भेद-१. परीतानन्त २. युक्तानन्त ३. अनन्तानन्त और संख्यात एक ही प्रकार का है- इस तरह कुल सात हुए। इनमें से प्रत्येक के निधन्य २ मध्यम और ३ उत्कृष्ट भेद करने से कुल प्रमाण (संख्यामान) के २१ भेद होते हैं।