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आठवाँ अधिकार-२३५
ताका समाधान- जे अज्ञानी जीव बहुत फल दिखाए बिना धर्म विष न लागै वा पाप न डरे, तिनका भला करने के अर्थि ऐसा वर्णन करिए है। बहुरि झूठ तो तब होय, जब धर्म का फल को पापका फल बतावै, पापका फलको धर्मका फल बतावै । सो तो है नहीं। जैसे दश पुरुष मिलि कोई कार्य करै, तहाँ उपचारकरि एक पुरुष का भी किया कहिए तो दोष नाही अयंवा जाके पितादिकने कोई कार्य किया होय, ताको एक जाति अपेक्षा उपचारकरि पुत्रादिकका किया कहिए तो दोष नाहीं। तैसे बहुत शुभ वा अशुभकार्यनिका एक फल भया; ताको उपचारकरि एक शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए तो दोष नाही अथवा और शुभ वा अशुभकार्यका, फल जो भया होय, ताको एक जाति अपेक्षा उपचारकरि कोई और ही शुभ वा अशुभकार्यका फल कहिए तो दोष नाहीं। उपदेशविषै कहीं व्यवहार वर्णन है, कहीं निश्चय वर्णन है। यहाँ उपचाररूप व्यवहार वर्णन किया है, ऐसे याको प्रमाण कीजिए है। याको तारतम्य न मानि लेना। तारतम्य करणानुयोगविषै निरूपण किया है, सो जानना।
बहुरि प्रथमानुयोगविषै उपचाररूप कोई धर्मका अंग भए सम्पूर्ण धर्म भया कहिए है। जैसे जिन जीवनिकै शंका कांक्षादिक न भए, तिन के सम्यक्त भया कहिए। सो एक कोई कार्यविष शंका कांक्षा न किए ही तो सम्यक्त न होय, सम्यक्त तो तत्वश्रद्धान भए हो है। परन्तु निश्चय सम्यक्तका तो व्यवहार सम्यक्त विषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त के कोई एक अंगविषै सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त का उपचार किया, ऐसे उपचारकरि सम्यक्त भया कहिए है। 'बहुरि कोई जैनशास्त्रका एक अंग जाने सम्यग्ज्ञान भया कहिए है, सो संशयादिरहित तत्त्वज्ञान भए सम्यग्ज्ञान होय परन्तु पूर्ववत् उपचारकरि कहिए। बहुरि कोई मला आचरण भए सम्यक्चारित्र भया कहिए है। तहाँ जाने जैनधर्म अंगीकार किया होय वा कोई छोटी-मोटी प्रतिज्ञा ग्रही होय,ताको श्रावक कहिए सो श्रावक तो पंचमगुणस्थानवर्ती भए हो है परन्तु पूर्ववतू उपचार करि याको श्रावक कह्या है उत्तरपुराणविष श्रेणिकको श्रावकोत्तम कह्या सो वह तो असंयत था परन्तु जैनी था तातें कह्या। ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि जो सम्यक्तरहिल मुनिलिंग धारै वा कोई द्रव्याँ भी अतीचार लगावता होय, ताको मुनि कहिए । सो मुनि तो षष्टादि गुणस्थानवर्ती भए हो है परन्तु पूर्ववत् उपचारकरि मुनि कह्या है। समवसरणसभाविष मुनिनिकी संख्या कही, तहाँ सर्व ही शुद्ध भावलिंगी मुनि न थे परन्तु मुनिलिंग धारनेत सबनिको मुनि कहे। ऐसे ही अन्यत्र जानना ।
__ बहुरि प्रथमानुयोगविषै कोई धर्मबुद्धितै अनुचित कार्य करै ताकी भी प्रशंसा करिये है। जैसे विष्णुकुमार मुनिनिका उपसर्ग दूरि किया सो धर्मानुरागते किया परन्तु मुनिपद छोड़ि पहु कार्य करना योग्य न था।' जातै ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्मविषे सम्भवै अर गृहस्थ धर्मः मुनिधर्म ऊँचा है। सो ऊँचा धर्म छोड़ि नीचाधर्म अंगीकार किया तो अयोग्य है परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानताकरि विष्णुकुमार जी की
१. भस्मकत्याधिग्रस्त समन्तभद्र स्वामी ने गुरु की आज्ञावश (क्योंकि उनसे महान् धर्म-प्रभावना होने वाली थी) अधस्तन पद
अंगीकार किया था। वे समन्तभट आगे तीर्थकर होने वाले हैं। इसमीचीनधर्मशास्त्र प्रस्ता. पृ.१०} इसी तरह सात सौ मुनिराजों की रक्षार्थ वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कुछ क्षों के लिए स्वपद को छोड़ने वाले विष्णुकुमार महामुनि थे। ये तो इसी भव से मोक्ष को भी प्राप्त हुए थे प्रश्नोत्तर श्रावकाचार ६/७०}