Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 259
________________ आवयाँ अधिकार-२३ को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रकट करने वाला करणानुयोग है। (र.क.श. ४४, अन.य. ३/१०) करणानुयोग में सूक्ष्मतम कर्मसिद्धान्त तथा लोकविभाग, कालप्ररूपण, तीर्थंकरों का अन्तराल, सकल रचना आदि प्ररूपित होती हैं। इस अनुयोग को जानने से बुद्धि अतिशय सूक्ष्मज्ञ हो जाती है तथा तत्त्वज्ञान निर्मल हो जाता है। चरणानुयोगका प्रयोजन अब चरणानुयोगका प्रयोजन कहिए है। चरणानुयोगविषै नाना प्रकार धर्मके साधन निरूपणकरि जीवनिको धर्मविषे लगाईए है। जे जीव हित-अहितको जानै नाहीं, हिंसादिक पाप कार्यनिविषै तत्पर होय रहे हैं, तिनको जैसे पापकार्यनिको छोड़ि धर्मकार्यनिविषै लागै तैसे उपदेश दिया, ताको जानि धर्म आचरण करनेको सन्मुख भए, ते जीव गृहस्थधर्म वा मुनिधर्म का विधान सुनि आपतै जैसा सधै तैसा धर्म-साधनविर्षे लागे हैं। ऐसे साधनः कषाय मंद हो है। ताके फलते इतना तो हो है, जो कुगतिविर्षे दुःख न पावै अर सुगतिविषे सुख पावै । बहुरि ऐसे साधनतें जिनमत का निमित बन्या रहे, तहाँ तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनी होय तो होय जावै । बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होयकारे चरणानुयोगको अभ्यासे हैं, तिनको ए सर्व आचरण अपने वीतरागभावके अनुसारी मासे हैं। एकदेश वा सर्वदेश वीतरागता भए ऐसी श्रावकदशा ऐसी मुनिदशा हो है। जाते इनके निमित्त-नैमित्तकपनो पाईए है। ऐसे जानि श्रावक मुनिधर्मके विशेष पहिचानि जैसा अपना वीतरागभाव भया होय, तैसा अपने योग्य धर्मको साधै है। तहाँ जेता अंशां वीतरागता हो है, ताको कार्यकारीजाने है। जेता अंशा राग रहै है, ताको हेय जाने है। सम्पूर्ण वीतरागताको परमधर्म माने है। ऐसे चरणानुयोगका प्रयोजन है। द्रव्यानुयोगका प्रयोजन अब द्रव्यानुयोगका प्रयोजन कहिये है। द्रव्यानुयोगविष द्रव्यनिका वा तत्त्वनिका निरूपण करि जीवनिको धर्मविष लगाईए है। जे जीव जीवादिक द्रव्यनिको वा तत्त्वनिको पहिचान नाही, आपा परको भिन्न जाने नाही, तिनको हेतु दृष्टांत युक्तिकार वा प्रमाण-नयादिककरि तिनका स्वरूप ऐसे दिखाया जैसे याकै प्रतीति होय जाय। ताके अभ्यासतें अनादि अज्ञानता दूरि होय, अन्यमत कल्पित तत्त्वादिक झूठ भासे, तब जिनमतकी प्रतीति होय ।अर उनके भावको पहिचाननेका अभ्यास राखै तो शीघ्र ही तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होय जाय । बहुरि जिनकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जीव द्रव्यानुयोगको अभ्यास। तिनको अपने श्रद्धान के अनुसारि सो सर्व कथन प्रतिभासे है। जैसे काहूने किसी विद्याको सीखि लई परन्तु जो ताका अभ्यास किया करे तो वह यादि रहै, न करै तो भूलि जाय। तैसे याकै तत्त्वज्ञान भया रहै, न करै तो भूलि जाय। अथवा संक्षेपपने तत्त्वज्ञान भया था, सो नाना युक्ति हेतु दृष्टांताविकार स्पष्ट होय जाय तो तिसविष शिथिलता न होय सके। बहुरि इस अभ्यासतें रागादि घटनेते शीघ्र मोक्ष सथै । ऐसे द्रव्यानुयोग का प्रयोजन जानना।

Loading...

Page Navigation
1 ... 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337