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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२३६६
परम श्रद्धास्पद पं. टोडरमलली ने यहां जो कुछ कहा है उसका मात्र इतना ही अभिप्राय समझना है कि इन विष्णुकुमार
महापुनि के आचरण का अन्यथा अथं लगाकर कोई पूज्य पुरुष ऊंचा धर्म छोड़कर नीचा धर्म अंगीकार नहीं करे। जैसे कोई सत्पुरुष श्रेष्ट पद धारण कर चन्दा-बिट्ठा करना, स्वयं रसीदें काटना आदि जैसा गृहस्थ पद का आचरण करे तो यह अनुचित है, चाहे वह कार्य अतिशयक्षेत्र-निर्वाणक्षेत्र के लिए भी क्यों नहीं किया जाता हो। इसी तरह अन्य अकरणीय आचरण के विषय में जानना चाहिए। मात्र ऐसी ही धारणा मन में रखकर उन्होंने तथ्य रूप से अन्त में लिखा
है कि “इस छल करि औरनिको ऊँचा धर्म छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं।" १०८ पूज्य विष्णुकुमार मुनिराज ने जो कार्य किया वह तो अपरिहार्य परिस्थितिवश (समन्तभद्रवत् ही किया था। १०८
सागरचन्द्राचार्य ने अपने अवधिज्ञान से जानकर स्पष्ट कहा था कि इस उपसर्ग को मात्र विक्रियाऋद्धिधारी विष्णुकुमार मुनि ही दूर कर सकते हैं {प्रश्नो.पा.६/४६ तथा आराधनाकथाकोश १२/६५ स एव निवारयति तमुपसगंकम्} अन्य कोई भी इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ नहीं है इषटू प्रामृत पृ. ६६ सम्पा. सीमाग्यमल रांवका, जयपुर) इसके बाद भी सागरचन्द्र के वचनों को सुनकर १. पृष्पदन्त की सूचना के पश्चात वे विष्णुकुमार राजा पद्म से ही कहते हैं कि "राजन्! इस उपसर्ग को दूर करो।" जब राणा भी कहता है कि मैं कुछ नहीं कर सकता, इस समय तो मैं भी पराधीन हूँ और इस उपसर्ग को आप ही दूर कर सकते हैं। षट्मामृत पृ. ६९ तया आ. कथाकोश १२/७३] तभी जाकर तद्भव मोक्षगामी १०८ विष्णकुमार ने जैसा अपनी बुद्धि से उचित समझा उस विधि से उस उपसर्गको दूर किया। जिससे ७०१ दिगम्बर यतियों की रक्षा हुई, चागें मन्त्री जैन श्रावक बन गए {आराधना. १२/८८} साथ ही उस समय मनुष्य व देव लोक में जैन धर्म की महती प्रभावना भी हुई थी जिसे हरिवंश पुराण २०/५१-६५ पृ.३८६-३६० से जाननी चाहिए, क्या विष्णुकुमार जैसी प्रभावना कोई गृहस्थ कर सकता था? कदापि नहीं, यह प्रभावना तो उन्हीं के द्वारा सम्भव थी, अन्यथा दिव्यज्ञानी (अवधिज्ञानी गुरु अन्य किसी प्रभावी गृहस्थ के
द्वारा यह कार्य सम्पन्न होना जानते तो भु. पुष्पदन्त को उस ऐसे प्रभावशाली गृहस्थ का नाम ही बता देते। हरिवंश पुराण {२०४६४} में विष्णुकुमार के इस चरित्र {आचरण को सर्वथा पापों का नाश करने वाला बताया है।
आराधनाकथाकोश १२/६५ में विष्णुकुमार को उपसर्ग निवारण करने वाला “विशिष्टधी" कहा है तथा उनकी स्तुति की है (१२/६१) आचार्य सकलकीर्ति ने अपने प्रश्नोत्तर प्रायकाचार {६/६४ में उन्हें धन्यवाद के पात्र कहा है। और संसार-सागर से पार करने हेतु जहाज के समान [९/७०बताया है। फिर उनके प्रति उपालम्भ (कुछ भी शिकायत समुचित नहीं है। अरे! वे तो अन्तर्मुहूर्त में पुनः यथाविधि स्वपद में आ गये थे। तथैव गुरु से प्रायश्चित तप लेकर श्रेष्ठतप करके केवलज्ञान को प्राप्त हो गए थे। किञ्च विष्णुकुमार उस विवक्षित अन्तर्मुहूर्त में वामन रूप धारण करते
समय भी ऋद्धिसम्पन्न संयतासयत {थयल ४/४४-४५] तथा अखण्ड ब्रह्मचारी तो थे ही। सारतः, परिस्थितियश की गई क्रिया को नियम नहीं मान लेना चाहिए। सथैय परिस्थितिवश घटित आचरण-किया की मजाक
भी नहीं करनी चाहिए। भैया! परिस्थितिवश संजायमान किया तो परिस्थिति विशेष में ही घटाने -आचरित करने योग्य होती है। परिस्थितिवश तो मुनिराज स्वयं अन्य क्षपक मुनिराजों के लिए आहार तक लाते हैं भगवती आराधना प्रस्ता. पृ. ३५ पं. कैलाशचन्द्र सि. शा. मूल.पृ ४४३) इत्यादि अन्य भी परिस्थितिजन्य क्रियाएँ होती हैं। उन्हें सामान्य दिनों में अनाचरणीय मात्र जानकर परिस्थिति विशेष में भी उनका घटित होना हास्यास्पद या उपालम्भ योग्य नहीं मानना
चाहिए। अन्त में, इस स्थल पर हमें इतना मात्र ही इस कथन का अभिप्राय हृदयंगत करना चाहिए कि महातपस्वी, विकियर्बिसम्पन्न, तद्भव मोक्षगामी, सन्मार्गप्रभावक १०८ विष्णुकुमार मुनिराज का उक्त आचरण हमें शिथिलाचार, हीनाचार या अथस्तनाग्रार के पोषण के लिए उदाहरण के रूप में नहीं लगाना चाहिए। विष्णुकुमार का वह कदम तो संख्यात साधुओं की रक्षार्थ, पापियोंको सन्मार्ग प्राप्त कराने हेतु तथा देव-नर लोक में अपूर्व प्रभावनाकरणार्थ था।