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सातवाँ अधिकार - १६५
निर्णय व्याकरणादि बिना नीके न होता जानि तिनकी आम्नाय अनुसार कथन किया। भाषाविषै भी तिनकी थोरी बहुत आम्नाय आए ही उपदेश होय सकेँ है । तिनको बहुत आम्नायते नीक निर्णय हो सके है।
बहुरि जो कहोगे - ऐसे हैं, तो अब भाषारूप ग्रन्थ काहेको बनाइए है?
ताका समाधान - कालदोष जीवनिकी मंद बुद्धि जानि केई जीवनिकै जेता ज्ञान होगा तेता ही होगा, ऐसा अभिप्राय विचारि भाषाग्रन्थ कीजिए है। सो जे जीव व्याकरणादिका अभ्यास न करि सकै, तिनको ऐसे ग्रन्थनिकरि ही अभ्यास करना । बहुरि जे जीव शब्दनिकी नाना युक्ति लिए अर्थ करने को ही व्याकरण अवगाहै हैं, वादादिकरि महंत होने को न्याय अवगाहै हैं, चतुरपना प्रगट करने के अर्थि काव्य अवगाहे हैं, इत्यादि लौकिक प्रयोजन लिए इनिका अभ्यास करे हैं, ते धर्मात्मा नाहीं । बनै जेता थोरा बहुत अभ्यास इनका करि आत्महित के अर्थि तत्त्वादिकका निर्णय करे है, सोई धर्मात्मा पंडित जानना ।
बहुरि केई जीव पुण्य-पापादिक फल के निरूपक पुराणादिक शास्त्र वा पुण्य-पापक्रिया के निरूपक आचारादि शास्त्र वा गुणस्थान मार्गणा कर्मप्रकृति त्रिलोकादिक के निरूपक करणानुयोग के शास्त्र तिनका अभ्यास करें है। सो जो इनिका प्रयोजन आप न विचारै, तब तो सूवाकासा ही पढ़ना भया। बहुरि जो इनका प्रयोजन विचारे है तहाँ पाप को बुरा जानना, पुण्यको भला जानना, गुणस्थानादिक का स्वरूप जानि लेना, इनका अभ्यास करेंगे तितना हमारा भला है, इत्यादि प्रयोजन विचारया सो इसतें इतना तो होसी - नरकादिक न होसी, स्वर्गादिक होसी परन्तु मोक्षमार्ग की तो प्राप्ति होय नाहीं । पहले साँचा तत्त्वज्ञान होय, तहाँ पीछे पुण्यपाप का फल को संसार जानै, शुद्धोपयोग मोक्ष मार्ने, गुणस्थानादिरूप जीव का व्यवहार निरूपण जानै, इत्यादि जैसा का तैसा श्रद्धान करता संता इनिका अभ्यास करे तो सम्यग्ज्ञान होय । सो तत्त्वज्ञानको कारण अध्यात्मरूप द्रव्यानुयोग के शास्त्र हैं; बहुरि केई जीव तिन शास्त्रनिका भी अभ्यास करे हैं। परन्त जहाँ जैसे लिख्या है, तैसे आप निर्णय करि आपको आपरूप, परको पररूप, आस्रवादिक को आस्रवादिरूप न श्रद्धान करे है। मुखर्ते तो यथावत् निरूपण ऐसा भी करें, जाके उपदेशतें और जीव सम्यग्दृष्टी होय जाँय । परन्तु जैसे लड़का स्त्री का स्वांगकरि ऐसा गान करें, जाको सुनतें अन्य पुरुष स्त्री काम रूप होय जाँय परन्तु वह जैसे सीख्या तैसे कहे है, वाको किछू भाव भासे नाहीं, तातैं आप कामासक्त न हो है। तैसे यहु जैसे लिख्या तैसे उपदेश दे परन्तु आप अनुभव नाहीं करे है। जो आपके श्रद्धान भया होता तो और तत्त्व का अंश और तत्त्वविषै न मिलायता। सो याकै थल नाहीं, तार्ते सम्यग्ज्ञान होता नाहीं । ऐसे यह ग्यारह अंगपर्यंत पढ़े तो भी सिद्धि होती नाहीं । सो समयसारादिविषै मिध्यादृष्टी के ग्यारह अंगनिका ज्ञान होना लिख्या है।
यहाँ कोऊ कई ज्ञान तो इतना हो है परन्तु जैसे अभव्यसेनकै श्रद्धानरहित ज्ञान भया, तैसे हो है ?
ताका समाधान - वह तो पापी था, जाकै हिंसादिकी प्रवृत्ति का भय नाहीं । परन्तु जो जीव वैवेयिक आदिविषै जाय हैं, ताकै ऐसा ज्ञान हो है सो तो श्रद्धानरहित नाहीं: वाकै तो ऐसा ही श्रद्धान है, ए ग्रन्थ