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सातवाँ अधिकार-२०१
कोऊ कहेगा, निमित्तमात्र तो है।
ताका उत्तर- परद्रव्य जोरावरी तो कोई बिगारता नाहीं। अपने भाव बिगरै तब वह भी बासनिमित्त है। बहुरि वाका निमित्त बिना भी भाव बिगरै हैं। तातै नियमरूप निमित्त भी नाहीं। ऐसे परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है। रागादिभाव ही बुरे हैं सो याकै ऐसी समझि नाहीं। यह परद्रव्यनिका दोष देखि तिनविर्षे द्वेषरूप उदासीनता करै है। सांची उदासीनता तो ताका नाम है, कोई ही द्रव्यका दोष वा गुण न भास, तात काहूको बुरा भला न जाने। आपको आप जाने, परको पर जाने, परतें किछू भी प्रयोजन मेरा नाहीं ऐसा मानि साक्षीभूत रहै। सो ऐसी उदासीनता ज्ञानीहीकै होय । बहुरि यहु उदासीन होय शास्त्रविषै व्यवहारचारित्र अणुव्रत महाव्रत रूप कह्या है ताको अंगीकार कर है, एकदेश वा सर्वदेश हिंसादि पापको छोड़े है, तिनकी जायगा अहिंसादि पुण्यरूप कार्यनिविष प्रयत है। बहुरि जैसे पर्यायाश्रित पापकार्यनिविर्ष कापना अपना मानै था तैसे ही और पर्यायाश्रित पुण्यकार्यनिविषे कर्त्तापना अपना मानने लागा, ऐसे पर्यायाश्रित कार्यनिविषै अहंबुद्धि मानने की समानता भई। जैसे मैं जीव मारूं हूँ, मैं परिग्रहधारी हूँ, इत्यादिरूप मानि थी, तैसे ही मैं जीवनिकी रक्षा करूं हूँ, मैं नग्न, परिग्रहरहित हूँ, ऐसी मानि भई। सो पर्यायाश्रित कार्यविषै अहंबुद्धि सो ही मिथ्यादृष्टि है। सोई समयसारविष कामा है
ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसातताः। सामान्यजनदत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षुता ।।।
(सर्व वि. अधिकार १६६) याका अर्थ- जे जीव मिथ्या अन्धकार व्याप्त होते संते आपको पर्यायाश्रित क्रियाका कर्ता माने हैं, ते जीव मोक्षाभिलाषी हैं, तोऊ तिनकै जैसे अन्यमती सामान्य मनुष्यनिकै मोक्ष न होय तैसे मोक्ष न हो है। जातें कर्त्तापनाका श्रद्धानकी समानता है। बहुरि ऐसे आप कर्ता होय श्रावकधर्म वा मुनिधर्मकी क्रिया विषै मन वचन कायकी प्रवृत्ति निरन्तर राखै है। जैसे उन क्रियानिविषै भंग न होय तैसे प्रवत्तें हैं। सो ऐसे भाव तो सराग हैं। चारित्र है सो वीतरागभाव रूप है। तातें ऐसे साधनको मोक्षमार्ग मानना मिथ्याबुद्धि है।
यहाँ प्रश्न- जो सराग वीतराग भेदकरि दोयप्रकार चारित्र कह्या है सो कैसे है?
ताका उत्तर- जैसे तन्दुल दोय प्रकारके हैं- एक तुषसहित हैं, एक तुषरहित हैं, तहाँ ऐसा जाननातुष है सो तन्दुलका स्वरूप नाही, तन्दुलविषै दोष है। अर कोई स्याना तुषसहित तन्दुलका संग्रह करै था, ताको देखि कोई भोला तुषनि ही को तन्दुल मानि संग्रह करै तो वृथा खेदखिन ही. होय । तैसे चारित्र दोय प्रकारका है- एक सराग है एक वीतरांग है। तहाँ ऐसा जानना- राग है सो चारित्रका स्वरूप नाही, चारित्रविषै दोष है। अर केई ज्ञानी प्रशस्तरागसहित चारित्र धरै हैं, तिनको देखि कोई अज्ञानी प्रशस्तरागहीको चारित्र मानि संग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होय।
यहाँ कोऊ कहेगा- पापक्रिया करते तीदरागादिक होते थे, अब इनि क्रियानिको करते मंदराग भया। तातें जेता अंशा रागभाव घट्या, तितना अंशा तो चारित्र कहो। जेता अंशा राग रह्या, तेता अंशा राग कहो। ऐसे याकै सरागचारित्र सम्भवै है।