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सातवाँ अधिकार- २१३
को माटीका घड़ा निरूपिए सो निश्चय अर घृत संयोगका उपचारकरि वाको ही घृतका घड़ा कहिए सो व्यवहार। ऐसे ही अन्यत्र जानना । तातैं तू किसी को निश्चय माने, किसीको व्यवहार मानै सो भ्रम है। बहुरि तेरे मानने विषै भी निश्चय व्यवहारकै परस्पर विरोध आया। जो तू आपको सिद्धसमान शुद्ध माने है, तो व्रतादिक काहेको करै है । जो व्रतादिकका साधनकारे सिद्ध भया चाहे हैं, तो वर्तमानविषै शुद्ध आत्माका अनुभवन मिथ्या भया । ऐसे दोऊ नयनिकै परस्पर विरोध है । तातैं दोऊ नयनिका उपादेयपना बनै नाहीं । यहाँ प्रश्न- जो समयसारादिविषै शुद्ध आत्माका अनुभव निरक्षर का है, व्रत संयमादिकको व्यवहार का है, तैसे ही हम माने है।
ताका समाधान - शुद्ध आत्माका अनुभव साँचा मोक्षमार्ग है ता बाको निश्चय का । इहाँ स्वभावतैं अभिन्न, परभावर्तै भिन्न ऐसा शुद्ध शब्दका अर्थ जानना । संसारीको सिद्ध मानना ऐसा भ्रमरूप अर्थ शुद्ध शब्दका न जानना । बहुरि व्रत तप आदि मोक्षमार्ग हैं नाहीं, निमित्तादिककी अपेक्षा उपचारत इनको मोक्षमार्ग कहिए है तातें इनको व्यवहार कह्या । ऐसे भूतार्थ अभूतार्थ मोक्षमार्गपनाकरि इनको निश्चय व्यवहार कहै हैं । सो ऐसे ही मानना । बहुरि ए दोऊ ही साँचे मोक्षमार्ग हैं, इन दोऊनिको उपादेय मानना सो तो मिथ्याबुद्धि ही है। तहाँ वह कहै है श्रद्धान तो निश्चयका राखे है अर प्रवृत्ति व्यवहार रूप राखे है ऐसे हम दोऊनिको अंगीकार करे हैं। सो ऐसे भी बने नाहीं जातें निश्चयका निश्चयरूप अर व्यवहारका व्यवहार रूप श्रद्धान करना युक्त है। एक ही नयका श्रद्धान भए एकान्तमिथ्यात्व हो है । बहुरि प्रवृत्तिविषै नयका प्रयोजन ही नाहीं । प्रवृत्ति तो द्रव्यकी परणति है। तहाँ जिस द्रव्यकी परणति होय, ताको तिसहीकी प्ररूपिए सो निश्चयनय अर तिसहीको अन्य द्रव्यकी प्ररूपिए सो व्यवहारनय ऐसे अभिप्राय अनुसार प्ररूपणतैं तिस प्रवृत्तिविषै दोऊ नय बने हैं। किछू प्रवृत्ति ही तो नयरूप है नाहीं । तातैं या प्रकार भी दोऊ नयका ग्रहण मानना मिथ्या है। तो कहा करिए, सो कहिए है- निश्चयनयकरि जो निरूपण किया होय, ताको तो सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अंगीकार करना अर व्यवहारनयकरि जो निरूपण किया होय, ताको असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना । सो ही समयसार विषै कया है
सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै
स्तन्मन्ये व्यवहार एवं निखिलो ऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यग्निश्चयमेकमेव तदमी निष्कम्पमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्न न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् । 199 ।।
समयसार कलश बंधाधिकार १७३
याका अर्थ - जातै सर्व ही हिंसादि वा अहिंसादिविषै अध्यवसाय हैं सो समस्त ही छोड़ना, ऐसा जिनदेवनिकरि कथा है । तातैं मैं ऐसे मानूँ हूँ, जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही छुड़ाया है। सन्त पुरुष एक परम निश्चयहीको भले प्रकार निष्कम्पपने अंगीकारकरि शुद्ध ज्ञानघनरूप निजमहिमाविषै स्थिति क्यों न करे हैं।
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