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सातवी अधिकार-२१५
नारकी जीव हैं, इत्यादि प्रकार लिए वाकै जीवको पहिचान भई। अथवा अभेदवस्तुविषे भेद उपजाय ज्ञान दर्शनादि गुणपर्यायरूप जीवके विशेष किए, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है, इत्यादि प्रकार लिए बाकै जीवकी पहिचान भई । बहुरि निश्चयकरि वीतरागभाव मोक्षमार्ग है। ताको जे न पहिचाने, तिनिको ऐसे ही कह्या करिए, तो वे समझे नाहीं। तब उनको व्यवहारनयकरि तत्त्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक पर द्रब्यका निमित्त मेटनेका सापेक्षकरि व्रतशील संयमादिकरूप वीतराग भावके विशेष दिखाए, तब वाकै वीतरागभावकी पहिचान भई। याही प्रकार अन्यत्र भी व्यवहारविना निश्चय के उपदेशका न होना जानना। बहुरि यहाँ व्यवहारकरि नर नारकादि पर्यायहीको जीव कह्या, सो पर्यायहीको जीव न मानि लेना। पर्याय तो जीव पुद्गलका संयोगरूप है। तहाँ निश्चयकरि जीवद्रव्य जुदा है, ताहीको जीव मानना। जीवका संयोगते शरीरादिकको भी उपचारकरि जीव कह्या, सो कहने मात्र ही है। परमार्थते शरीरादिक जीव होते नाहीं, ऐसा ही श्रद्धान करना । बहुरि अभेद आत्माविषै ज्ञानदर्शनादि भेद किए, सो तिनको भेदरूप ही न मानि लेने। भेद तो समझावने के अर्थ किये हैं। निश्चयकरि आत्मा अभेद ही है, तिसहीको जीव वस्तु मानना। संज्ञा संख्यादिकरि भेद कहे, सो कहने मात्र ही हैं, परमार्थत जुदे-जुदे हैं नाहीं। ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा व्रतशीलसंपमादिकको मोक्षमार्ग कह्या, सो इनहीको मोक्षमार्ग न मानि लेना। जाते परद्रव्यका ग्रहण त्याग आत्मा के होय, तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता हर्ता होय। सो कोई द्रव्य कोई द्रव्यके आधीन है नाही 1 तातें आत्मा अपने भाव रागादिक हैं, तिनको छोड़ि वीतरागी हो है। सो निश्चयकार वीतराग भार है, गरेक्षा है। पीतग पनि जर पिकनिकै कदाचित् कार्य कारणपनो है। तातै व्रतादिकको मोक्षमार्ग कहे, सो कहनेमात्र ही है। परमार्थः बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नाहीं, ऐसा ही श्रद्धान करना। ऐसे ही अन्यत्र भी व्यवहारनय का अंगीकार न करना जानि लेना।
यहाँ प्रश्न- जो व्यवहारनय परको उपदेशविषे ही कार्यकारी है कि अपना भी प्रयोजन साधै है?
ताका समाधान- आप भी यावत् निश्चयनयकरि प्ररूपित वस्तुको न पहिचाने, तावत् व्यवहार मार्गकरि वस्तुका निश्चय करै। तातें नीचली दशाविषै आपको भी व्यवहारनप कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचार मात्र मानि वाके द्वारे वस्तुका ठीक (निश्चय) कर, ती तो कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत व्यवहार को भी सत्यभूत मानि वस्तु ऐसे ही है, ऐसा श्रद्धान करै तो उलटा अकार्यकारी होय जाय। सो ही पुरुषार्थसिद्धयुपायविष कह्या है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्यरा देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ।।६।। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयता यात्यनिश्चयज्ञस्य ।।७।। इनका अर्थ- मुनिराज अज्ञानीके समझायनेको असत्यार्थ जो व्यवहारनय ताको उपदेश है। जो केवल व्यवहार ही को जाने है, ताको उपदेश ही देना योग्य नाहीं है। बहुरि जैसे जो साँचा सिंहको न जाने,