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सातयाँ अधिकार-२५७
श्रद्धान है। तातें मिथ्यादृष्टी अनेकान्तरूप वस्तुको मानै परन्तु यथार्थ भावको पहिचानि मानि सकै नाही, ऐसा जानना।
___ बहुरि इस जीवकै व्रत शील संयमादिकका अंगीकार पाईए है, सो व्यवहारकरि 'ए भी मोक्ष के कारण हैं' ऐसा मानि तिनको उपादेय मानै है। सो जैसे केवल व्यवहारावलम्बी जीवकै पूर्व अयथार्थपना कह्या था, तैसे ही याकै भी अयथार्थपना जानना। बहुरि यहु ऐसे भी मानै है.. जो यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करनी योग्य है परन्तु इनविषै ममत्व न करना। सो जाका आप कर्त्ता होय, तिसविषै ममत्व कैसे न करिए। आप कर्ता न है, तो मुझको करनी योग्य है ऐसा भावा कैसे किया। अर जो कर्त्ता है, तो वह अपना कर्म भया, तब कत्ताकर्म सम्बन्ध स्वयमंच ही भया । सो ऐस: मान्यता तो भ्रम है। तो कैसे है-बाह्य व्रतादिक हैं सो तो शरीरादि परद्रव्यके आश्रय हैं। परद्रव्यका आप कर्ता है नाहीं, तात तिसविषै कर्तृत्वबुद्धि भी न करनी अर तहाँ ममत्व भी न करना। बहुरि व्रतादिकविषै ग्रहण त्यागरूप अपना शुभोपयोग होय सो अपने आश्रय है। ताका आप कर्ता है तातै तिस विष कर्तृत्वबुद्धि भी माननी अर तहाँ ममत्व भी करना। बहुरि इस शुभोपयोगको बंधका ही कारण जानना, मोक्षका कारण न जानना, जातें बंध अर मोक्षकै तो प्रतिपक्षीपना है। तातें एक ही भाव पुण्यबंध को भी कारण होय अर मोक्षको भी कारण होय, ऐसा मानना भ्रम है । ताते व्रत अव्रत दोऊ विकल्परहित जहाँ परद्रव्य के ग्रहण-त्यागका किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा उदासीन वीतराग शुद्धोपयोग सोई मोक्षमार्ग है। बहुरि नीचली दशाविषै केई जीवनिकै शुभोपयोग अर शुद्धोपयोगका युक्तपना पाईए है। तातै उपचारकरि व्रतादिक शुभोपयोग को मोक्षमार्ग कया है। वस्तुविचारतां शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है। जाते बंधको कारण सोई मोक्षका घातक है, ऐसा श्रद्धान करना। बहुरि शुद्धोपयोगहीको उपादेय मानि ताका उपाय करना, शुभोपयोग अशुभोपयोग को हेय जानि तिनके त्यागका उपाय करना, जहाँ शुखोपयोग न होय सकै, तहाँ अशुभोपयोग को छोड़ि शुभही विषे प्रवर्त्तना । जातें शुभोपयोगनै अशुभोपयोगविषै अशुद्धता की अधिकता है। बहुरि शुद्धोपयोग होय, तब तो परद्रत्यका साक्षीभूत ही रहै है। तहाँ तो किछू परद्रव्य का प्रयोजन ही नाहीं। बहुरि शुभोपयोग होय, तहाँ बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति होय अर अशुभोपयोग होय, तहाँ बाह्य अव्रतादिककी प्रवृत्ति होय जाते अशुद्धोपयोगकै अर परद्रव्यको प्रवृत्तिकै निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पाईए है। बहुरि पहलै अशुभोपयोग शूटि शुभोपयोग होइ, पीछे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग होइ। ऐसी क्रमपरिपाटी है।
बहुरि कोई ऐसे माने कि शुभोपयोग है सो शुद्धोपयोगको कारण है। सो जैसे अशुभोपयोग छूटि शुभोपयोग हो है, तैसे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग हो है- ऐसे ही कार्यकारणपना होय तो शुमोपयोग का कारण अशुभोपयोग ठहरै। अथवा द्रव्यलिंगी के शुभोपयोग तो उत्कृष्ट हो है, शुद्धोपयोग होता ही नाहीं । ताते परमार्थत इनकै कारण-कार्यपना है नाहीं। जैसे रोगी के बहुत रोग था, पीछे स्तोक रोग भया, तो वह स्तोक रोग तो निरोग होनेका कारण है नाहीं। इतना है, स्तोक रोग रहे निरोग होने का उपाय करे तो होइ जाय। बहुरि जो स्तोक रोगहीको भला जानि ताका राखने का यत्न करै तो निरोग कैसे होय। तैसे कषायीकै तीद्रकवायरूप अशुभोपयोग था, पीछै मंदकषायरूप शुभोपयोग भया, तो वह शुभोपयोग तो निःकषाय