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सातनों अधिकार-२२६
कुदेव को देव मानना, अव्रत को व्रत मानना तथा अतत्त्व को तत्त्व मानना, मिथ्यात्व है। यदि कोई इनका सर्वथा त्याग नहीं करता ( और सम्यक्त्व के साथ-साथ किसी मूढ़ता का भी पालन करता है) तो उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि मानना चाहिए। क्योंकि मिथ्यात्व-सेवन के कारण उसके धर्माचरण का भी लोप कर देना ठीक नहीं, अर्थात् उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना टीक नहीं, बल्कि मिश्र. मानना चाहिए।
श्रीमद् राजचन्द्र (पृ. ८१२) लिखते हैं-उन्मार्ग को मोक्षमार्ग माने और मोक्षमार्ग को उन्मार्ग माने वह मिथ्यात्वी है। उन्मार्ग से मोक्ष नहीं होता, इसलिए मार्ग दूसरा होना चाहिए; ऐसा जो भाव वह मिश्रमोहनीय है। आत्मा यह होगी? ऐसा ज्ञान होना सम्यक्त्व मोहनीय है। आत्मा यह है; ऐसा निश्चय भाव सम्यक्त्व है। प्रथम संस्करण /द्वितीय खण्ड पू. ८१२
उपर्युक्त समस्त कथनों का सार यह है कि तत्त्व श्रद्धान तथा अतत्त्वश्रद्धान युगपत होने के साथ-साथ भी यदि सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोह कर्म का उदय हो तो उस श्रद्धानाश्रद्धान के मिश्रित भाव को सम्यग्मिध्यात्व परिणाम कहते हैं। इस परिणाम को केवल सम्यक्त्व रूप से तथा केवल मिथ्यात्व रूप से व्यवस्थापित करना शक्य नहीं है। इस काल में इस जीव के किंचित् अनाप्त श्रद्धान का लब (अंश) अवश्य रहता है (अन्यथा अतत्त्व श्रद्धान का अंश भी जीवित नहीं रहे)। कदाचित् यह कहा जाए कि उसके अतत्त्वश्रद्धान तो, "यह जिनाज्ञा ही है;" ऐसा ज्ञानपूर्वक, ज्ञान मात्र की कमी के कारण ही होता है। तो उत्तर यह है कि ऐसा अतत्त्व श्रद्धान तो सम्यक्त्वी के भी होता है (गो. जी. २७) तथा इस सम्यग्मिथ्यात्वी के ऐसा भाव त्रिकाल भी नहीं होता कि "सब देवता तथा सब दर्शन एक समान हैं" क्योंकि यह तो विनय मिथ्यात्व है। ( स. सि. ८/१/पृ.२८४, रा. वा. ८/१/२८, त. सा. ५/८, त. वृत्ति८/१, आदि) सम्यग्मिध्यात्वी कुदेव की वंदना भी नहीं करता, क्योंकि वह तो मिथ्यात्व है (द. पा. २२ तथा भावसंग्रह देवसेन ७३-७५) इन सबके बर्जन के बाद; जो जैसा अनाप्त के प्रति श्रद्धानांश, यथाजिनदृष्ट रहता है उसे स्वीकार करना चाहिए। उसके साथ आप्त व तत्त्वों के प्रति श्रद्धान के मिश्रण से वह सम्यग्मिथ्यात्वी होता है। यह सम्यग्मिथ्यात्वी नियम से ऐसा जीव ही बन सकता है जिसने पहले सम्यग्दर्शन पाया हो, यह शर्त भी उक्त तथ्यों में ध्यान रखनी चाहिए।
ऐसे सम्यक्त के सन्मुख मिथ्यादृष्टीनिका कथन किया। प्रसंग पाय अन्य भी कथन किया है। या प्रकार जैनमतवाले मिथ्यादृष्टीनिका स्वरूप निरूपण किया। यहाँ नाना प्रकार मिथ्यादृष्टीनिका कथन किया है ताका प्रयोजन यह जानना- जो इन प्रकारनिको पहिचानि आपविर्ष ऐसा दोष होय तो ताको दूरिकार सम्यक्श्रद्धानी होना। औरनि हीके ऐसे दोष देखि देखि कषायी न होना । जातें अपना 'मला-बुरा तो अपने परिणामनित है। औरनिकों तो सचिवान देखिए, तो किछू उपदेश देय वाका भी भला कीजिये। तातें अपने परिणाम सुधारने का उपाय करना योग्य है। जाते संसार का मूल मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व समान अन्य पाप