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सातवां अधिकार-२२७
का विचारतें यथार्थ प्रतीति भई थी बहुरि तिस शिक्षाका विचार किए बहुत काल होय गया तब ताको भूलि जैसे पूर्वं अन्यथा प्रतीति थी तैसे ही स्वयमेव होय गई तब तिस शिक्षा की प्रतीतिका अभाव होय जाय। अथवा यथार्थ प्रतीति पहले तो कीन्हीं, पीछे न तो किछु अन्यथा विचार किया, न बहुत काल भया परन्तु तैसा ही कर्म उदयतें होनहार के अनुसार स्वयमेव ही तिस प्रतीति का अभाव होय अन्यथापना भया। ऐसे अनेक प्रकार तिस शिक्षा की यथार्थ प्रतीतिका अभाव हो है। तैसे जीवके जिनदेव का तत्त्वादिरूप उपदेश भया, ताकी परीक्षाकरि वाकै 'ऐसे ही है' ऐसा श्रद्धान भया, पीछ पूर्वे जैसे कहे तैसे अनेक प्रकार तिस पदार्थश्रद्धान का अभाव हो है। सो यह कथन स्थूलपने दिखाया है। तारतम्यकरि केवलज्ञानविषै भारी है-इस समय दान कि इस समय नाही है। जाते यही मूल कारण मिथ्यात्वकर्म है। ताका उदय होय, तब तो अन्य विचारादि कारण मिलो वा मति मिलो, स्वयमेव सम्यागका अभाव हो है। बहुरि ताका उदय न होय, तब अन्य कारण मिलो वा मति मिलो, स्वयमेव सम्यक् श्रद्धान होय जाय है। सो ऐसी अन्तरंग समय-समय सम्बन्धी सूक्ष्मदशाका जानना छनस्थकै होता नाहीं।' तातें अपनी मिथ्या सम्यश्रद्धानरूप अवस्थाका तारतम्य याको निश्चय हो सकै नाही, केवलज्ञानायधै भास है। तिस अपेक्षा गुणस्थाननिकी पलटनि शास्त्रविषै कही है। या प्रकार जो सम्पदन्तत भ्रष्ट होय सो सादि मिथ्यादृष्टी कहिए। ताकै भी बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति विधै पूर्वोक्त पाँच लब्धि हो हैं। विशेष इतना-यहाँ कोई जीवक दर्शन मोहकी तीन प्रकृतिनिकी सत्ता हो है सो तीनोंको उपशमाय प्रथमोपशमसम्यक्ती हो है। अथवा काहूक सम्यक्त्तमोहनीयका उदय आवै है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है, सो क्षयोपशमसम्यक्ती हो है। याकै गुणश्रेणी आदि क्रिया न हो है वा अनिवृत्तिकरण न हो है। बहुरि काहूकै मिश्रमोहनीवका उदय आवै है, दोय प्रकृतिनिका उदय न हो है, सो मिश्रगुणस्थानको प्राप्त हो है। याकै करण न हो है। ऐसे सादि मिथ्यादृष्टीके मिथ्यात्य छूटै दशा हो है। क्षायिकसम्यक्तको वेदकसम्यादृष्टीही पावै है तातै ताका कथन यहाँ न किया है। ऐसे सादि मिथ्यादृष्टीका जघन्य तो मध्यम अन्तर्मुहूर्त्तमात्र उत्कृष्ट किंचित्ऊन अर्द्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र काल जानना। देखो परिणामनिकी विचित्रता, कोई जीव तो ग्यारहवें गुणस्थान यथाख्यातचारित्र पाय बहुरि मिध्यादृष्टी होय किंचित् ऊन अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन कालपर्यंत संसार में रुलै अर कोई नित्यनिगोदमेंसों निकसि मनुष्य होय मिथ्यात्व छूटे पीछे अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान पावै । ऐसे जानि अपने परिणाम बिगरनेका भय राखना अर तिनके सुधारने का उपाय करना।
बहुरि इस सादिमिध्यादृष्टीकै थोरे काल मिथ्यात्वका उदय रहै तो बाह्य जैनीपना नाही नष्ट हो है वा तत्त्वनिका अश्रद्धान व्यक्त न हो है वा बिना विचार किए ही वा स्तोक विचारहीत बहुरि सम्यक्तकी प्राप्ति होय जाय है। बहुरि बहुत काल मिथ्यात्वका उदय रहै तो जैसी अनादि मिथ्यादृष्टीकी दशा तैसी याकी
१. इतना विशेष है कि यद्यपि अर्थपर्यायें छप्रस्थ की दृष्टि का विषय नहीं होती। (जैनगजट १७-१-६६) तथापि अवधिज्ञानी
तथा मनःपर्ययज्ञानी आत्माएँ अर्थपर्यायों को जानती हैं (भूयः सूक्ष्मार्थपर्यायविन्मनःपर्ययोवः अर्थात् अवधि से भी मनःपर्यय अधिक अर्थपर्यायें जानता है।
- श्लोकवार्तिक अ. १ सूत्र २५ की टीका, भाग ४ पृ. ३६ कुन्धुसागर ग्रन्थमाला