Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 249
________________ सातवाँ अधिकार-२२३ अतः क्षयोपशमलब्धि का लक्षण थवल, पंचसंग्रह, लब्धिसार आदि के अनुसार ही समझना चाहिए। बहुरि मोहका मंद उदय आवनेते मंदकषाय रूप भाव होय जहाँ तत्त्वविचार होय सकै सो विशुद्धिलब्धि है। बहुरि जिनदेवका उपदेश्या तत्त्वका धारण होय, विचार होय सो देशनालब्धि है। जहाँ नरकादिविषै उपदेशका निमित्त न होय, तहाँ पूर्वसंस्कारते होय। बहुरि कर्मनिकी पूर्व सत्ता (घटकारे) अंतः कोटाकोटी सागर प्रमाण रहि जाय अर नवीन बंध अंतःकोटाकोटी प्रमाण ताके संख्यातवें भाग मात्र होय, सो भी तिस लब्धि-कालतें लगाय क्रमतें घटना होय, केतीक पापप्रकृतिनिका बंध क्रमतें मिटता जाय, इत्यादि योग्य अवस्थाका होना सो प्रायोग्यलब्धि है। लो ए च्यारों लब्धि भव्य या अभव्यकै होय हैं। इन च्यार लब्धि भए पी सम्यक्त होय तो होय, न होय तो नाहीं भी होय। ऐसे 'लब्धिसार' विषे कह्या है'। तातै तिस तत्त्व विचारवालाकै सम्यक्त्व होने का नियम नाहीं। जैसे काहूको हितकी शिक्षा दई, ताको वह जानि विचार करे, यह सीख दई सो कैसे है? पी? विचारतां वाकै ऐसे ही है, ऐसी उस संख को प्रति हाय जाय। अपया अन्यथा विचार होय वा अन्य विचारविषै लागि तिस सीखका निर्धार न करे, तो प्रतीति नाहीं भी होय । तैसे श्रीगुरु तत्त्वोपदेश दिया, ताको जानि विचार करै, यह उपदेश दिया सो कैसे है। पीछे विचार करनेते वाकै ‘ऐसे ही है' ऐसी प्रतीति होय जाय। अथवा अन्यथा विचार होय वा अन्य विचारविषै लागि जिस उपदेशका निर्धार न करै तो प्रतीति नाहीं भी होय सो मूल कारण मिथ्यात्व कर्म है, याका उदय मिटै तो प्रतीति होई जाय, न मिटै तो नाहीं होय, ऐसा नियम है। याका उद्यम तो तत्त्वविचार करने मात्र ही है। बहुरि पाँचवी करणलब्धि भए सम्यक्त होय ही होय, ऐसा नियम है। सो जाकै पूर्वं कही थी च्यारि लब्धि ते तो भई होय अर अंतर्मुहूर्त पीछे जाकै सम्यक्त होना होय, तिसही जीवके करणलब्धि हो है। सो इस करणलब्धिवालाकै बुद्धिपूर्वक तो इतनाही उद्यम हो है-तिस तत्त्वविचारविष उपयोग तद्रूप होय लगाचे, ताकरि समय-समय परिणाम निर्मल होते जांय हैं। जैसे काहूकै सीखका विचार ऐसा निर्मल होने लग्या, जाकरि याकै शीघ्र ही ताकी प्रतीति होय जासी । तैसे तत्त्वउपदेश का विचार ऐसा निर्मल होने लग्या, जाकरि याकै शीघ्र ही ताका श्रद्धान होसी। बहुरि इन परिणामनिका तारतम्य केवलज्ञानकरि देख्या, ताका निरूपण करणानुयोगविष किया है। सो इस करणलब्धिके तीन भेद हैं-अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। इनका विशेष व्याख्यान तो लब्धिसार शास्त्रविष किया है, तिस जानना । यहाँ संक्षेपसों कहिए है त्रिकालवर्ती सर्व करणलब्धिवाले जीव तिनके परिणामनिकी अपेक्षा ए तीन नाम हैं। तहाँ करण नाम तो परिणामका है। बहुरि जहाँ पहले पिछले समयनिके परिणाम समान होय सो अधःकरण है । जैसे कोई जीवका परिणाम तिस करणके पहिले समय स्तोक विशुद्धता लिए भया, पीछ समय-समय अनंतगुणी विशुद्धताकर बधते भए। बहुरि वाकै जैसे द्वितीय तृतीयादि समयनिविषै परिणाम होय, तैसे केई अन्य जीवनिकै प्रथम समयविषै ही होय। ताकै तिसते समय-समय अनन्तगुणी विशुद्धताकरि बधते होय। ऐसे अधःप्रवृत्तिकरण जानना। १. लब्धि. ३ 1 २. लब्धि . ३५ ।

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