Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

View full book text
Previous | Next

Page 248
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२२ अभिहित/अभिप्रेत हुआ है । पर यहाँ पर तो प्रथम सम्यक्त्व की हेतुभूत पंच लब्धियों में से आय क्षयोपशम नामक लब्धि का प्रकरण है । क्षयोपशम लब्धि में तो १४८ कर्मों में से यथासम्भव सभी पापहारी सुभाा निरन्तः स गुणा हीन होकर उदीरित होना क्षयोपशम लब्धि रूप से विवक्षित है । लब्धिसार गा, ४ व मुख्तारीय टीका में (पृ. ५ पर) लिखा है कम्ममलपडलसत्ती पउिसमयमणंतगुणविहीणकमा । होदूणुदीरदि जदा तदा खओवसम लद्धी दु ॥४॥ अर्थ- प्रतिसमय क्रम से अनन्त गुणीहीन होकर कर्ममल पटल शक्ति की जब उदीरणा होती है तब क्षयोपशम लब्धि होती है । । विशेषार्थ- पूर्व संचित कर्मों के मलरूप पटल के अर्थात्-अप्रशस्त (पाप) कर्मों के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्त गुणे हीन हुए उदीरणा को प्राप्त होते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है । धवल ६/२०४ में भी लिखा है-"पुब्बसंचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागफद्दयाणि जदा विसोहीए पडिसमयमणंतगुणहीणाणि होइणुदीरिज्जति तदा खओवसमलद्धी होदि।" अर्थ वही है जो लब्धिसार गाथा ४ का ऊपर किया है । क्षयोपशम लब्धि के काल में प्रथम समय में जितना पाप कर्मानुभाग उदित हुआ उससे दूसरे समय में अनन्तगुणाहीन अनुभाग उदय होगा । दूसरे समय के उदित अनुभाग से तीसरे समय में अनन्तगुणा हीन उदित अनुभाग होगा। इसी तरह आगे के समयों में कहना चाहिए । यही क्षयोपशम लब्धि है । ____ अन्य ग्रन्थों में भी ऐसा का ऐसा कथन है, जैसा कि धवल पु. ६/२०४ का कथन ऊपर लिखा है(१) अनगार धर्मामृत स्वोपज्ञ टीका २/४६-४७/१४७ भारतीय ज्ञानपीठ (२) अमित. पंच सं. १/२८७ (३) श्रीपालसुत डड्ढ विरचित पंचसंग्रह १/२१६ तथा प्रा. पं. सं. पृ. ६७१ (४) जयथवला १२/२०१ (५) जयधवला १२/प्रस्ता. पृ. १८ (६) तत्त्वार्थसूत्र पृ. २०६ अनु. पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, में पं. फूलचन्द्र जी का लिखित प्रकरण ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337