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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२०
ताका समाधान- अर्थका भाव भासे बिना वचनका अभिप्राय न पहिचानै । यह तो मानि ले जो मैं जिनवचन अनुसारि मायूँ हूँ परन्तु भाव भासे बिना अन्यथापनो होय जाय। लोकवि भी किंकर को किसी कार्यको भेजिए सो यह उस कार्यका भाव जाने तो कार्यको सुधारै, जो भाव न भासै तो कहीं चूकि हो जाय। तातै भाव भासने के अर्थि हेय उपादेय तत्त्वनिकी परीक्षा अवश्य करनी।
बहुरि वह कहै है- जो परीक्षा अन्यथा होय जाय तो कहा करिए?
ताका समाधान- जिन बचन अर अपनी परीक्षा इनकी समानता होय, तब तो जानिए सत्य परीक्षा भई। यावत् ऐसे न होय तावत् जैसे कोई लेखा करै है, ताकी विधि न मिले तावत् अपनी चूकको ढूंढै। तैसे यह अपनी परीक्षा विषै विचार किया करै। बहुरि जो ज्ञेयतत्त्व हैं, तिनकी परीक्षा होय सके तो परीक्षा करै। नाहीं यह अनुमान करै, जो हेय उपादेय तत्त्व ही अन्यथा न कहै तो ज्ञेयतत्त्व अन्यथा किस अर्थि कहै। जैसे कोऊ प्रयोजनरूप कार्यनिविषे झूट न बोलै सो अप्रयोजन झूठ काहेको बोले । तातै ज्ञेयतत्त्यनिका परीक्षा कर भी वा आज्ञाकरि स्वरूप जाने है। तिनका यथार्थ भाव न भासै तो भी दोष नाहीं। याहीत जैनशास्त्रनिविषै तत्त्वादिकका निरूपण किया, तहाँ तो हेतु युक्ति आदिकरि जैसे याकै अनुमानादिकरि प्रतीति आवै, तैसे कथन किया । बहुरि त्रिलोक, गुणस्थान, मार्गणा. पुराणादिकका कथन आज्ञा अनुसारि किया। ताते हेयोपादेय तत्त्वनिकी परीक्षा करनी योग्य है। तहाँ जीवादिक द्रव्य वा तत्त्व तिनको पहचानना । बहुरि तहाँ आपा पर को पहचानना। बहुरि त्यागने योग्य मिथ्यात्व रागादिक अर ग्रहणे योग्य सम्यग्दर्शनादिक तिनका स्वरूप पहिचानना। बहुरि निमित्त नैमित्तिकादिक जैसे हैं, तैसे पहिचानना । इत्यादि मोक्षमार्गविषै जिनके जाने प्रवृत्ति होय, तिनको अवश्य जानने। सो इनकी तो परीक्षा करनी। सामान्यपने किसी हेतु युक्ति करि इनको जानने वा प्रमाण नयकरि जानने वा निर्देश स्वामित्यादिकरि वा सत् संख्यादि करि इनका विशेष जानना। जैसी बुद्धि होय जैसा निमित्त बने तैसे इनको सामान्य विशेषरूप पहचानने। बहुरि इस जाननेका उपकारी गुणस्थान, मार्गणादिक वा पुराणादिक वा व्रतादिक क्रियादिकका भी जानना योग्य है। यहाँ परीक्षा होय सके तिनकी परीक्षा करनी, न होय सकै ताका आज्ञा अनुसारि जानपना करना।।
ऐसे इस जानने के अर्थ कबहूँ आपही विचार कर है, कबहूँ शास्त्र बाँचे है, कबहूँ सुनै है, कबहूँ अभ्यास करै है, कबहूँ प्रश्नोत्तर करै है इत्यादि रूप प्रवत है। अपना कार्य करनेका जाकै हर्ष बहुत है, ताते अंतरंग प्रीतित ताका साधन करै। या प्रकार साधन करता यावत् सांचा तत्त्वखान न होय, 'यहु ऐसे ही है' ऐसी प्रतीति लिए जीवादि तत्त्वनिका स्वरूप आपको न मासै, जैसे पर्याय विष अंहबुद्धि है तैसे केवल आत्मविष अहंबुद्धि न आवे, हित अहितरूप अपने भावनिको न पहिचान, तावत् सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टी है। यह जीव धोरे ही कालमें सम्यक्तको प्राप्त होगा। इस ही भव में वा अन्य पर्यायविषे सम्यक्तको पावेगा। इस भव में अभ्यासकरि परलोकविषै तिर्यंचादि गतिविष भी जाय तो तहाँ संस्कार के बलते देव गुरु शास्त्रका निमित्त बिना भी सम्यक्त होय जाय। जातें ऐसे अभ्यासके बलत मिथ्यात्वकर्म का अनुभाग हीन हो है। जहाँ वाका उदय न होय, तहाँ ही सम्यक्त्त होय जाय। मूलकारण यहु ही है। देवादिकका तो बाह्य निमित्त है. सो मुख्यताकरि तो इनके निमित्तहीः सम्यक्त हो है। तारतम्यतें पूर्व अभ्यास