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मोक्षमार्ग प्रकाशक- २१८
शुद्धोपयोग होनेको कारण है नाहीं । इतना है- शुभोपयोग भए शुद्धोपयोग का यत्न करे तो होय जाय। बहुरि जो शुभोपयोगही को भला जानि ताका साधन किया करै तो शुद्धोपयोग कैसे होय । तार्तें मिध्यादृष्टी का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग को कारण है नाहीं । सम्यग्दृष्टीकै शुभोपयोग भए निकट शुद्धोपयोग प्राप्त होय, ऐसा मुख्यपनाकरि कहीं शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण भी कहिए है, ऐसा जानना ।
बहुरि यह जीव आपको निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्गका साधक माने है। तहाँ पूर्वोक्त प्रकार आत्माको शुद्ध मान्या सो तो सम्यग्दर्शन भया । तेसे ही जान्या सो सम्यग्ज्ञान भया । तैसे ही विचारविषै प्रवर्त्मा सो सम्यक्चारित्र भया। ऐसे तो आपके निश्चय रत्नत्रय भया मानै । सो मैं प्रत्यक्ष अशुद्ध सो शुद्ध कैसे मानू, जानू, विचारू हूँ, इत्यादि विवेकरहित भ्रमते सन्तुष्ट हो है । बहुरि अरहंतादि बिना अन्य देवादिकको न माने है वा जैन शास्त्र अनुसार जीवादिके भेद सीखि लिए हैं तिनहीको माने है, औरको न मानै सो तो सम्यग्दर्शन मया । बहुरि जैनशास्त्रनिका अभ्यास विषै बहुत प्रवर्त्ते है सो सम्यग्ज्ञान भया । बहुरि व्रतादिरूप क्रियानिविषै प्रवर्त्ते है सो सम्यक्चारित्र भया। ऐसे आपके व्यवहार रत्नत्रय भया मानै । सो व्यवहार तो उपचार का नाम है। सो उपचार भी तो तब बनै जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयका कारणादिक होय । जैसे निश्चय रत्नत्रय सधै तैसे इनको साधै तो व्यवहारपनो भी सम्भवै । सो याकै तो सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयकी पहिचान ही भई नाहीं । यहु ऐसे कैसे साथि सकै। आज्ञा अनुसारी हुवा देख्यांदेखी साधन करै है । तातैं याकै निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग न भया। आगे निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग का निरूपण करेंगे, ताका साधन भए ही मोक्षमार्ग होगा।
ऐसे यहु जीव निश्चयाभासको माने जाने है परन्तु व्यवहार साधनको भी भला जाने है, तातें स्वच्छन्द होय अशुभरूप न प्रवर्ते है । व्रतादिक शुभोपयोगरूप प्रवर्तें है, तार्ते अन्तिम ग्रैवेयक पर्यन्त पदको पावे है। बहुरि जो निश्चयाभासकी प्रबलतात अशुभरूप प्रवृत्ति होय जाय तो कुगतिविषै भी गमन होय, परिणामनिके अनुसारि फल पावै है परन्तु संसारका ही भोक्ता रहे हैं। साँचा मोक्षमार्ग पाए बिना सिद्धपदको न पावै है । ऐसे निश्चयाभास व्यवहाराभास दोऊनिके अवलम्बी मिध्यादृष्टी तिनिका निरूपण किया।
अब सम्यक्त्वके सन्मुख जे मिथ्यादृष्टी तिनका निरूपण कीजिए है
सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि का निरूपण
कोई मंदकषायादिकका कारण पाय ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम भया, तार्तं तत्त्वविचार करने की शक्ति भई अर मोह मंद भया, तार्ते तत्त्वविचारविषै उद्यम भया । बहुरि बाह्य निमित्त देव, गुरु, शास्त्रादिकका भया, तिनकरि साँचा उपदेशका लाभ भया । तहाँ अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्गका वा देवगुरुधर्मादिकका वा जीवादि तत्त्वनिका वा आपा परका वा आपको अहितकारी हितकारी भावनिका इत्यादिकका उपदेशर्तें सावधान होय ऐसा विचार किया-अहो मुझको तो इन बातनिकी खबरि ही नाहीं, मैं भ्रमत भूलि पाया पर्याय ही विषै तन्मय भया । सो इस पर्यायकी तो थोरे ही कालकी स्थिति है। बहुरि यहाँ मोको सर्व निमित्त मिले हैं। तातें मोको इन बातनिका ठीक करना । जातैं इनविषै तो मेरा ही प्रयोजन भासै