Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 250
________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२४ बहुरि जिसविषे पहले पिछले समयनिके परिणाम समान न होय, अपूर्व ही होय, सो अपूर्वकरण है। जैसे तिस करणके परिणाम जैसे पहले समय होय तैसे कोई ही जीवकै द्वितीयादि समयनिविषे न होय, बधते ही होय। बहुरि इहाँ अधःकरणवत् जिन जीवनिकै करणका पहला समय ही होय, तिनि अनेक जीवनिकै परस्पर परिणाम समान भी होय अर अधिक होन विशुद्धता लिए भी होय। परन्तु यहाँ इतना विशेष भया, जो इसकी उत्कृष्टतात भी द्वितीयादि समयवालेका जघन्य परिणाम भी अनन्तगणी विशुद्धता लिए ही होय। ऐसे ही जिनको करण मांडे द्वितीयादि समय भया होय, तिनकै तिस समयवालों के तो परस्पर परिणाम समान वा असमान होय परन्तु ऊपरले समयवालोंके तिस समय समान सर्वधा न होय, अपूर्व ही होय। ऐसे अपूर्वकरण' जानना । ___ बहुरि जिस विषै समान समयवर्ती जीवनिकै परिणाम समान ही होय, निवृत्ति कहिए परस्पर भेद ताकरि रहित होय। जैसे तिस करणका पहला समयविष सर्व जीवनिका परिणाम परस्पर समान ही होय, ऐसे ही द्वितीयादि समयनिविषै समानता परस्पर जाननी। बहुरि प्रथमादि समयवालोंतें द्वितीयादि समयवालोंके अनन्तगुणी विशुद्धता लिए होय। ऐसे अनिवृत्तिकरण जानना। ऐसे ए तीन करण जानने। नहाँ पहलै अंतर्मुहूर्त कालपर्यन्त अधःकरण होय । तहाँ च्यारि आवश्यक हो हैं। समय समय अनन्तगुणी विशुद्धता होय, बहुरि एक अंतर्मुहूर्त करि नवीन बंधकी स्थिति घटती होय सो स्थितिबंधापसरण होय, बहुरि समय-समय प्रशस्त प्रकृतिनिका अनन्तगुणा अनुभाग बंधै, बहुरि समय-समय अप्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागबंध अनन्तवें भाग होय: ऐसे च्यारि आवश्यक होय-तहाँ पीछे अपूर्वकरण होय । ताका काल अधःकरणके काल के संख्यात भाग है। ताविषे ए आवश्यक और होय। एक एक अन्तर्मुहूर्त्तकरि सत्ताभूत पूर्वकर्मकी स्थिति थी, ताको घटावै सो स्थितिकाण्डकघात होय । बहुरि तिसत स्तोक एक एक अन्तर्मुहूर्त्तकरि पूर्वकर्मका अनुभागको घटावै सो अनुभाग कांडकघात होय । बहुरि गुणश्रेणिका कालविषे क्रमते असंख्यातगुणा प्रमाण लिए कर्म निर्जरने योग्य करिए सो गुण श्रेणीनिर्जरा होय। बहुरि गुणसंक्रमण यहाँ नाहीं हो है। अन्यत्र अपूर्वकरण हो है, तहाँ हो है। ऐसे अपूर्वकरण भए पीछे अनिवृत्तिकरण होय । ताका काल अपूर्वकरणके भी संख्यातवें भाग है। तिसविर्ष पूर्वोक्त आवश्यकसहित केता १. समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुवकरणो हु । जम्हा उवरिमभाया हेट्ठिमभावेहिं गत्थि सरिसत्तं ।। लब्धि. ३६ ।। तम्हा विदिय करण अपुवकरणेत्ति णिद्दिष्टुं ।। लब्धि. ५१।। करणं परिणामो अपुवाणि च ताणि करणाणि च अपुन्यकरणाणि, असमाणपरिणामा नि ज उत्तं होदि। - धवला १-६--४ २. एगसमए वटुंताणं जीवाणं परिणामेहि ण विज्जदे णियट्टी णिवित्ती जत्थ ते अणियट्टीपरिणामा। श्वला +E---४। एक्कम्हि कालसमये सटाणादीहिं जह गियति । ण णियति तहा विय परिणामेहिं मिहोजेहिं ।। गो.जी. ५६ ।।

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