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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१२
अर्थ - जिस प्रकार पर्यायदृष्टि वाले के अर्थात् व्यवहारनयावलम्बी के निश्चयनय अर्थात् द्रव्यार्थिकनय का कथन नियम से अवस्तु है उसी प्रकार द्रव्यार्थिकदृष्टिवाले के निश्चयनयावलम्बी के पर्यायार्थिक अर्थात् व्यवहारनय का विषयभूत पदार्थ अवस्तु है।
व्यवहार पर्वथा झूट नहीं है क्योंकि झूठ के द्वारा अज्ञानी जीवों को यथार्थ नहीं समझाया जा सकता है और न झूठ के द्वारा परमार्थ का उपदेश दिया जा सकता है। झूठ किसी को भी प्रयोजनवान नहीं हो सकता और न पूज्य हो सकता है, किन्तु आर्षग्रन्थों में कहा है कि व्यवहार के द्वारा अज्ञानी जीव संबोधे जाते हैं, परमार्थ का उपदेश दिया जाता है तथा व्यवहारनय प्रयोजनवान है और पूज्य है।
'अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् ।' (पु.सि.उ. श्लोक ६)। आचार्य महाराज अज्ञानी जीवों को संबोधने के लिए व्यवहारनय का उपदेश देते हैं।
तह ववहारेण विणापरमत्युयएसणमसक्कं ।।८।। (समयसार) अर्थात- व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (इसका यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि 'झूठ के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।)
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्टिदा माये।।१२।। (समयसार) अर्थात्- जो अनुत्कृष्ट अवस्था में स्थित हैं उनको व्यवहारनय का उपदेश प्रयोजनवान है।
इसलिए शुद्धनय का विषय जो शुद्धांत्मा, उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है।
पद्मनन्दि पञ्चविंशति के श्लोक ६०८ में 'व्ययहतिः पूज्या' इन शब्दों द्वारा 'व्यवहार पूज्य है', ऐसा कहा है।
इन आर्षवाक्यों के विरुद्ध 'व्यवहारनय' को झूठ, हेय, छोड़ने योग्य कैसे कहा जा सकता है। निश्चय और व्यवहार की अपेक्षा वस्तु को स्याद् नित्य, स्यादनित्य मानने वाले का ज्ञान भ्रमात्मक कैसे हो सकता है।
अनेकान्त और स्यावाद के द्वारा ही इस जीव का कल्याण हो सकता है। "
बहुरि तू ऐसे मान है, जो सिद्धसमान शुद्ध आत्माका अनुभवन सो निश्चय अर व्रतशील संयमादिरूप प्रवृत्ति सो व्यवहार, सो ऐसा तेरा मानना ठीक नाहीं । जाते कोई द्रव्यभावका नाम निश्चय, कोई का नाम व्यवहार ऐसे है नाहीं । एक ही द्रव्यके भावको तिस स्वरूपही निरूपण करना, सो निश्चयनय है। उपचारकरि तिस द्रव्यके भावको अन्य द्रव्यके भावस्वरूप निरूपण करना, सो व्यवहार है। जैसे माटीके घड़े