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सातवाँ अधिकार-२११
सत्प इति। जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सोपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसंगः। एवमात्मा व्यवहारेण पत्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुनः स्वहव्यमेवेति'। (समयसार गाथा ३६१ टीका)
अर्थ इसप्रकार है
प्रश्न- जैसे कुन्दकुन्दभगवान ने गाथा ३६१ में कहा है 'परद्रव्य को व्यवहारनय से जानता है।' उसीप्रकार बौद्ध भी व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहते हैं। फिर आप बौद्धों का क्यों खण्डन करते हैं?
उत्तर- जैसे निश्चयनय की अपेक्षा बौद्ध व्यवहारनय को झूठ मानते हैं उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी व्यवहार को सत्य नहीं मानते, किन्तु जैनमत में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार नय झूटा है तथापि व्यवहाररूप से सत्य है। यदि व्यवहारनय लोक-व्यवहाररूप से भी सत्य न हो तो समस्तलोक-व्यवहार मिथ्या हो जायगा और ऐसा होने से अतिप्रसंगदोष आजायगा। यह आत्मा व्यवहारनय से परद्रव्य को जानता देखता है और निश्चयनय से स्वद्रव्य को जानता देखता
श्री समयसार गाथा १४ की टीका में भी कहा है- 'आत्मनोऽनादिवखस्य बखस्पृष्टत्वपर्यायेनानुभूयमावतायां बद्धस्पृष्टत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ.
अर्थ- अनादिकाल से बंधे हुए आत्मा का पर्याय से (व्यवहारनय से) अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है, तथापि पुद्गल से किंचितमात्र भी स्पर्शित न होने योग्य आत्मस्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर (निश्चयनय से) बद्धस्पृष्टता अभूतार्थ है।
जिनको उपर्युक्त आर्ष पर श्रद्धा नहीं है और यह मानते हैं कि जैसा व्यवहारनय का कथन है वैसा नहीं है, उनके मत में सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती और न जिनवाणी सिद्ध होती है तथा द्वादशांग की रचना, शास्त्ररचना भी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यह सब व्यवहारनय का विषय सत्य नहीं है अर्थात् अवस्तु है।
जिस प्रकार निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय का विषय सत्य नहीं है अर्थात् अवस्तु है, उसी प्रकार व्यवहारनय की अपेक्षा निश्चय का विषय भी अवस्तु है। कहा भी है
दवट्टियवत्तव्बं अवत्यु णियमेण पज्जवणयस्स। तह पज्जययत्यु अयत्युमेय दवष्टियणयस्स।।१०।। (सं.त.)