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पोक्षमार्ग प्रकाशक-२०२
ताका समाधान- जो तत्त्वज्ञानपूर्वक ऐसे होय तो कहो हो तैसे ही है। तत्त्वज्ञान बिना उत्कृष्ट आचरण होते भी असंयम ही नाम पावै है। जाते रागभाव करनेका अभिप्राय नाहीं मिट है। सोई दिखाईए
द्रव्यलिंगी के अभिप्राय में अयथार्थपना द्रव्यलिंगी मुनि राज्यादिकको छोड़ि निर्ग्रन्थ हो है, अठाईस मूलगुणनिको पाले है, उग्रोग्र अनशनादि घना तप कर है, क्षुथादिक बाईस परीषह सहै है, शरीरका खंड खंड भए भी व्यग्र न हो है, व्रत भंगके कारण अनेक मिले तो भी दृढ़ रहे है, कोई सेती क्रोध न कर है, ऐसा साधनका मान न कर है, ऐसे साधनविष कोई कपटाई नाहीं है, इस साथनकरि इस लोक परलोकके विषय-सुखको न चाहै है, ऐसी याकी दशा भई है। जो ऐसी दशा. न होय तो गैवेयकपर्यन्त कैसे पहुंचे' परन्तु याको मिथ्यादृष्टि असंयमी ही शास्त्रविषै कह्या । सो ताका कारण यह है-याकै तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान साँचा भया नाहीं। पूर्व वर्णन किया, तैसे तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान गया है। तिसही अभिप्रायतें सब साथन करै है। सो इन साधननिका अभिप्रायकी परम्पराको विचारे कषायनिका अभिप्राय आवै है। कैसे? सो सुनहु-यह पापका कारण रामादिकको तो हेय जानि छोरै है परन्तु पुण्यका कारण प्रशस्त रागको उपादेय मान है। ताके बधनेका उपाय करै है। सो प्रशस्तराग भी तो कषाय है। कषायको उपादेय मान्या, तब कषाय करने का ही श्रद्धान रह्या। अप्रशस्त परद्रव्यनिस्यों द्वेषकरि प्रशस्त परद्रव्यनिविषै राग करनेका अभिप्राय भया। किछू परद्रव्यनिविषै साम्यमावरूप अभिप्राय न भया। १, इस कथन का अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्वी मुनि भी नवमवेयक तक पहुँच सकते हैं। इस कथन का अभिप्राय ऐसा
मत समझना कि वेयक में द्रव्यलिंगी ही जाते हैं, या मिथ्यादृष्टि ही जाते हैं। नवम ग्रैवेयक में जितने भी जीव है उनकी संख्या पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण मात्र ही है (यवल ३/२१) तथा नवम ग्रेवेयक में जो भी जीव (मुनिराज) जाते हैं वे प्रायः सम्यक्त्वी तथा भावलिंगी ही झेते हैं। यही कारण है कि नवम वेयक में स्थित देवों में जितने मिथ्यात्वी है उनसे संख्यातगुणे सम्यग्दृष्टि है। (धवल ३/२८३-८४, २६६, २६९ के अल्पबाघ) जिसका तथ्यात्मक अर्थ यह निकला कि जिनलिंग यानी मुनिपद धारण करके फिर भी द्रव्यसंयम (मात्रद्रव्यलिंग) ही बना रहे ऐसे पुनि अल्प ही होते हैं। (धवत ३/२६४) स्थूलार्थ यह है कि - यदि मनुष्यों में स्थित सकल ऐसे श्रेष्ठ तपस्वियों को संचित (इकट्ठा) किया जाए जो नवम ग्रैवयेक में जाने योग्य तप तप रहे है तो उन सब एकत्र श्रेष्ठ तपस्वी मुनियों में से संख्यात बहुमाग प्रमाण सम्यकवी होंगे तथा एक भाग प्रमाण ही मिथ्यादृष्टी प्राप्त होंगे। ऐसा समझना चाहिए।
द्वितीय तथ्य यह है कि - अन्तिम प्रैवेयक में जाने वाले द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि साधुओं के जीव दिव) इतने कम हैं - इतने कम है कि वे स्वों के सम्यग्दृष्टि देवों के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही हैं। दिखे थक्स ३, पृ. २६-१६ सोहम्मीसाण असंजद.....गाव उपरिम उवरिमगेवज्जो ति। तदो अणुविस. का सार) अतः हे भव्यो। ऐसे व्यलिंगी साधु भी है कहाँ? अनन्तों में से एक जीव ही ऐसे प्रकृष्ट पुरुषार्थ वाला होता है। ___पं. टोडरमलजी का यहाँ अभिप्राय यह है कि सम्यक्त्व बिना तप का मूल्य नहीं है, वह तो सत्य ही है। पर यहाँ श्रीमद् राजचन्द्र का कथन भी स्मरणीय है कि श्रद्धा और ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी यदि संयम नहीं आया और प्रमाद का नाश नहीं हुआ तो जीव बांसवृक्ष की उष्मा को पाता है। (श्रीमद् पृ. ५६२) किंच, बान का फल विरति है। वीतराग का यह वचन सभी को स्मरण रखना योग्य है। श्रीमद् अंक ७४६ पृष्ठ ६४४)