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सातवाँ अधिकार-२०५
तो दोऊ नयनिका स्वरूप भारया नाहीं अर जिनमतविषै दोय नय कहे, तिनिविर्ष काहूको छोड़ी भी जाती नाहीं । तातें भ्रम लिए दोऊनिका साधन साधै है, ते भी जीव मिथ्यादृष्टी जानने।
अब इनकी प्रवृत्तिका विशेष दिखाईए है. अंतरंगविषै आप तो निर्धार करि यथावत् निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग को पहिचान्या नाहीं, जिनआज्ञा मानि निश्चय व्यवहाररूप मोक्षमार्ग दोय प्रकार मानै है सो मोक्षमार्ग दोय नाही, मोक्षमार्ग का निरूपण दोय प्रकार है। जहाँ सांचा मोक्षमार्गको मोक्षमार्ग निरूपिए सो निश्चय मोक्षमार्ग है अर जहाँ जो मोक्षमार्ग तो है नाहीं परन्तु मोक्षमार्ग का निमित्त है वा सहचारी है, ताको उपचारकरि मोक्षमार्ग कहिए सो व्यवहार मोक्षमार्ग है, जातै निश्चय व्यवहारका सर्वत्र ऐसा ही लक्षण है। सांचा निरूपण सो निश्चय, उपचार निरूपण सो व्यवहार, तातै निरूपण अपेक्षा दोय प्रकार मोक्षमार्ग जानना। एक निश्चय मोक्षमार्ग है, एक व्यवहार मोक्षमार्ग है; ऐसे दोय मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। बहुरि निश्चय व्यवहार दोऊनिक उपादेय माने है, सो भी भ्रम है। जाते निश्चय व्यवहारका स्वरूप तो परस्पर विरोध लिए है। जाते समयसार विषै ऐसा कह्या है
“यवहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।' गाथा ११ याका अर्थ-- व्यवहार अभूतार्थ है। सत्य स्वरूपको न निरूप है। किसी अपेक्षा उपचारकरि अन्यथा निरूपै है। बहुरि शुद्धनय जो निश्चय है सो भूतार्थ है। जैसा वस्तु का स्वरूप है तैसा निरूप है। ऐसे इन दोऊनिका स्वरूप तो विरुद्धता लिए है।
विशेषः - मो. मा. प्र. (सस्ती ग्रन्धमाला, दिल्ली प्रकाशन के पृष्ट ४४३ अधिकार ८) में ही लिखा है- “तातें जो उपदेश होय ताको सर्वथा न जानि लेना। उपदेश का अर्ध को जानि तहाँ इतना विचार करना, यह उपदेश किस प्रकार है, किस प्रयोजन को लिए है, किस जीव को कार्यकारी है।"
पृ. २८८ (वही संस्करण) पर कहा है- “जैसे वैद्य रोग मेट्या चाहे है। जो शीत का आधिक्य देखै, तो उष्ण औषधि बतावै अर आताप का आधिक्य देखै तो शीतल औषधि बतावै । तैसे श्री गुरु रागादिक छुड़ाया चाहै है। जो रागादिक पर का माने स्वच्छन्द होय निरुद्यमी होय ताको उपादानकारण की मुख्यता करि रागादिक आत्मा का है ऐसा श्रद्धान कराया। बहुरि जो रागादिक आपका स्वभाव मानि तिनिका नाश का उद्यम नाहीं करे है, ताको निमित्तकारण की मुख्यता करि रागादिक परभाव हैं, ऐसा श्रद्धान कराया है।"
मो. मा. प्र. के उपर्युक्त दोनों वाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाना जीवों को नानाप्रकार का मिथ्यात्व रोग लग रहा है। क्योंकि मिथ्यात्व रोग नाना प्रकार का है, अतः उसका १. ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुखणओ। ___ भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्टी हवइ जीवो ।। गाथा ११।।