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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६४
तत्त्वश्रद्धान भए भी मिथ्यादर्शन ही रहै है।" वा प्रवचनसारविषै' कह्या है- “आत्मज्ञानशून्य तत्त्वार्थ-प्रदान कार्यकारी नाही" बहुरि यह व्यवहारदृष्टिंकारे सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहै हैं तिनिको पाले है। पच्चीस दोष कहै हैं, तिनको टाले है। संवेगादिक गुण कहै हैं, तिनिको धारै है। परन्तु जैसे बीज बोए बिना खेतका तब साधन किए भी अन्न होता नाही, तैसे साँचा तत्त्व श्रद्धान भए बिना सम्यक्त होता नाहीं । सो पंचास्तिकाय व्याख्याविषै जहाँ अन्तविषै व्यवहाराभासवालेका वर्णन किया है, तहाँ ऐसा ही कथन किया हैं। या प्रकार याकै सम्यग्दर्शन के अर्थि साधन करते भी सम्यग्दर्शन न हो है।
सम्यग्ज्ञान के अर्थि साधन में अयथार्थता अब यह सम्यग्ज्ञान के अर्थि शास्त्रविष शास्त्राभ्यास किए सम्यग्ज्ञान होना कह्या है, ताते शास्त्राभ्यासविषै तत्पर रहे है। तहाँ सीखना, सिखायना, याद करना, बाँचना, पढ़ना आदि क्रियाविषै तो उपयोगको रमावै है परन्तु वाकै प्रयोजन ऊपरि दृष्टि नाहीं है। इस उपदेशविर्ष मुझको कार्यकारी कहा, सो अभिप्राय नाहीं। आप शास्त्राभ्यासकरि औरनिको सम्बोथन देनेका अभिप्राय राखै है। घने जीव उपदेश माने तहाँ सन्तुष्ट हो है। सो कामालास तो आपके अर्दिता है, प्रसंग पाय परका भी भला होय तो परका भी भला करे। बहुरि कोई उपदेश न सुने तो मति सुनो, आप काहेको विषाद कीजिए। शास्त्रार्थ का भाव जानि आपका मला करना। बहुरि शास्त्राभ्यासविषै भी केई तो व्याकरण न्याय काव्य आदि शास्त्रनिको बहुत अभ्यास है सो ए तो लोकवि पंडितता प्रगट करनेके कारण हैं। इन विषै आत्महित निरूपण तो है नाहीं इनका तो प्रयोजन इतना ही है, अपनी बुद्धि बहुत होय तो थोरा बहुत इनका अभ्यासकरि पीछे आत्महित के साधक शास्त्र तिनिका अभ्यास करना। जो बुद्धि थोरी होय, तो आत्महित के साथक सुगम शास्त्र तिनहीका अभ्यास करे। ऐसा न करना, जो व्याकरणादिकका ही अभ्यास करते-करते आयु पूरी होय जाय अर तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने।
यहाँ कोऊ कहै- ऐसे है तो व्याकरणादिकका अभ्यास न करना। ताको कहिए है। तिनिका अभ्यास बिना महान् ग्रन्थनिका अर्थ खुलै नाहीं। तातै तिनका भी अभ्यास करना योग्य
बहुरि यहाँ प्रश्न- महान् ग्रन्थ ऐसे क्यों किए, जिनका अर्थ व्याकरणादि बिना न खुले। भाषारि सुगमरूप हितोपदेश क्यों न लिख्या। उनकै किछू प्रयोजन तो था नाही?
ताका समाधान- भाषाविषै भी प्राकृत संस्कृतादिक के ही शब्द है परन्तु अपभ्रंश लिये है। बहुरि देश-देशविषै भाषा अन्य-अन्य प्रकार है सो महत पुरुष शास्त्रनिविषै अपभ्रंश शब्द कैसे लिखे। बालक तोतला बोले तो बड़े तो न बोले। बहुरि एक देश के भाषा रूप शास्त्र दूसरे देशविषै जाँय तो तहाँ ताका अर्थ कैसे भासे। तातै प्राकृत संस्कृतादि शुद्ध शब्दरूप ग्रन्थ जोड़े। बहुरि व्याकरण बिना शब्द का अर्थ यथावत् न भासे । न्याय बिना लक्षण परीक्षा आदि यथावत न होय सके। इत्यादि वचनद्वारि वस्तु का स्वरूप १. अतः आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञान - तत्त्यार्थश्रद्धान-संयतत्त्वयोगपद्यमप्यकिंचित्करमेय ।। सं. टीका अ. ३ गाथा ३६।।