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सातयाँ अधिकार- १६७
का उपाय करना, पीछे कषाय पटावनेको बाह्य साधन करना । सो ही योगीन्द्रदेवकृत श्रावकाचारविषै कह्या
है
#दसणभूमिहं बाहिरा जिय वयरुक्ख ण हुति । *
याका अर्थ- यहु सम्यग्दर्शनभूमिका बिना हे जीव व्रतरूपी वृक्ष न होय । बहुरि जिन जीवनिकै तत्त्वज्ञान नहीं, ते यथार्थ आचरण न आचरे हैं। सोई विशेष दिखाईए है
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केई जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा घर बैठे अर अंतरंग विषय - कषायवासना मिटी नाहीं । तब जैसे तैसे प्रतिज्ञा पूरी किया चाहें, तहाँ तिस प्रतिज्ञाकरि परिणाम दुःखी हो हैं । जैसे बहुत उपवासकरि बैठे, पीछे पीड़ा दुःखी हुवा रोगीवत् काल गमावै, थर्मसाधन न करै सो पहले ही सपती जानिए तितनी ही प्रतिमा क्यों न लीजिए। दुःखी होनेमें आर्तध्यान होय, ताका फल भला कैसे लागेगा । अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख न सह्या जाय, तब ताकी एवज विषय पोषने को अन्य उपाय करे। जैसे तृषा लागे तब पानी तो न पीवै अर अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करै वा घृत तो छोडै अर अन्य स्निग्ध वस्तुको उपायकरि भी । ऐसे ही अन्य जानना । सो परीषह न सही जाय थी, विषयवासना न छूटै थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा काहेको करी । सुगम विषय छोड़ि पीछे विषम विषयनिका उपाय करना पडे, ऐसा कार्य काहेको कीजिए । यहाँ तो उलटा रागभाव तीव्र हो है अथवा प्रतिज्ञाविषै दुःख होय तब परिणाम लगावनेको कोई आलम्बन विचारै । जैसे उपवासकरि पीछे क्रीड़ा करे। कई पापी जूवा आदि कुविसनविषै लगे हैं अथवा सोय रह्या चाहैं । यहु जाने, किसी प्रकारकरि काल पूरा करना। ऐसे ही अन्य प्रतिज्ञाविषै जानना ।
अथवा केई पापी ऐसे भी हैं, पहले प्रतिज्ञा करै, पीछे तिसतें दुःखी होय तब प्रतिज्ञा छोड़ि दें। प्रतिज्ञा लेना - छोड़ना तिनके ख्यालमात्र है । सो प्रतिज्ञा भंग करने का महापाप है। इसतें तो प्रतिज्ञा न लेनी ही भली है। या प्रकार पहले तो निर्विचार होय प्रतिज्ञा करै, पीछे ऐसी दशा होय । जैनधर्मविषै प्रतिज्ञा न लेनेका दण्ड तो है नाहीं। जैनधर्मविषे तो यहु उपदेश है, तो पहले तो तत्त्वज्ञानी होय । पीछे जाका त्याग करै, ताका दोष पहिचानै। त्याग किए गुण होय, ताको जाने । बहुरि अपने परिणामनिको ठीक करे। वर्त्तमान परिणामनि ही के भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे। आगामी निर्वाह होता जानै, तो प्रतिज्ञा करै। बहुरि शरीर की शक्ति वा द्रव्य क्षेत्र काल भावादिकका विचार करें। ऐसे विचारि पीछे प्रतिज्ञा करनी, सो भी ऐसी करनी जिस प्रतिज्ञातैं निरादरपना न होय, परिणाम चढ़ते रहें। ऐसी जैनधर्मकी आम्नाय है।
यहाँ कोऊ कहै - चांडालादिकोंने प्रतिज्ञा करी, तिनकै इतना विचार कहाँ हो है ।
ताका समाधान - मरणपर्यन्त कष्ट होय तो होहु परन्तु प्रतिज्ञा न छोड़नी, ऐसा विचारकरि प्रतिज्ञा करे है, प्रतिज्ञाविषै निरादरपना नाहीं । अर सम्यग्दृष्टी प्रतिज्ञा करें है, सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करे है। बहुरि जिनके अंतरंग विरक्तता न भई अर बाह्य प्रतिज्ञा घरै हैं ते प्रतिज्ञाके पहले या पीछे जाकी प्रतिज्ञा करे, ताविषे अति आसक्त होय लागे हैं। जैसे उपवासके धारने पारने भोजनविषै अति लोभी होय गरिष्ठादि भोजन करे, शीघ्रता घनी करै सो जैसे जलको मूंदि राख्या था, छूट्या तब ही बहुत प्रवाह चलने लागा ।
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