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छठा अधिकार-१३
की स्थापना थी, तिनिका तो विघ्न न होने देना था। बहुरि म्लेच्छ पापीनिका उदय हो है, सो परमेश्वर का किया है कि नाहीं। जो परमेश्वरका किया है, तो निंदकनिको सुखी करै, भक्तनिको दुखदायक करे, तहाँ भक्तवत्सलपना कैसे रह्या? अर परमेश्वरका किया न हो है, तो परमेश्वर सामर्थ्यहीन भया। तातै परमेश्वरकृत कार्य नाहीं। कोई अनुचरी व्यंतरादिक हो चमत्कार दिखावै है। ऐसा ही निश्चय करना।
बहुरि इहाँ कोऊ पूछे कि कोई व्यार अपना प्रभुत्व कह वा अप्रत्याको बता दे, कोऊ कुस्थानवासादिक बताय अपनी हीनता कहै, पूछिए सो न बतावै, 'प्रमरूप वचन कहै वा औरनिको अन्यथा परिणमावै, औरनिको दुःख दे, इत्यादि विचित्रता कैसे है?
ताका उत्तर-व्यंतरनिविषै प्रभुत्व की अधिक हीनता तो है परन्तु जो कुस्थान विषै वासादिक बताय हीनता दिखावै है सो तो कुतूहलते वचन कहै है। व्यंतर बालकवत् कुतूहल किया करै। सो जैसे बालक कुतूहलकरि आपको हीन दिखावै, चिडावै, गाली सुने, बार पाडै (ऊँचे स्वरसे रोवै) पीछे हँसने लगि जाय, तैसे ही व्यंतर चेष्टा करै हैं। जो कुस्थानही के वासी होय, तो उत्तम स्थानविषै आवै हैं तहाँ कौनकै ल्याए आवै हैं। आप ही तैं आवै हैं, तो अपनी शक्ति होते कुस्थानविष काहेको रहे? तातै इनिका टिकाना तो जहाँ उपजै हैं, तहाँ इस पृथ्वी के नीचे वा ऊपरि है सो मनोज्ञ है। कुतूहलके लिए चाहै सो कई हैं। बहुरि जो इनको पीड़ा होती होय तो रोवते-रोवते हँसने कैसे लगि जाय हैं। इतना है, मन्त्राविककी अधित्यशक्ति है सो कोई सांचा मन्त्रके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होय तो वाकै किंचित् गमनादि न होय सकै वा किंचित् दुःख उपजै वा कोई प्रबल वाको मन करे तब रहि जाय वा आप ही रहि जाय । इत्यादि मन्त्रकी शक्ति है परन्तु जलावना आदि न हो है। मन्त्र वाला जलाया कहै; बहुरि वह प्रगट होय जाय, जात वैक्रियिक शरीरका जलावना आदि सम्भवै नाहीं। बहुरि व्यंतरनिकै अयधिज्ञान काहूकै स्तोक क्षेत्र काल जाननेका है, काहूकै बहुत है। तहाँ वाकै इच्छा होय अर आपके बहुत ज्ञान होय तो अप्रत्यक्षको पूछ ताका उत्तर दें तथा आपकै स्तोक ज्ञान होय तो अन्य महत्ज्ञानीको पूछि आय करि जवाब दें। बहुरि आपकै स्तोक ज्ञान होय वा इच्छा न होय, तो पूछ ताका उत्तर न दे, ऐसा जानना । बहुरि स्तोकज्ञानवाला व्यंतरादिककै उपजता केतेक काल ही पूर्व जन्मका ज्ञान होय सकै, पीछे ताका स्मरण मात्र रहै है तात तहाँ कोई इच्छाकरि आप किछू चेष्टा करै तो करै। बहुरि पूर्व जन्मकी बातें कहै । कोऊ अन्य वार्ता पूछै तो अवधि तो थोरा, बिना जाने कैसे कहै। बहुरि जाका उत्तर आप न देय सकै वा इच्छा न होय, तहाँ मान कुतूहलादिकते उत्तर न दे वा झूठ बोले, ऐसा जानना। बहुरि देवनिमें ऐसी शक्ति है, जो अपने या अन्यके शरीरको वा पुद्गल स्कंधको जैसी इच्छा होय तैसे परिणमावै। तात नाना आकाराविरूप आप होय वा अन्य नाना चरित्र दिखावै । बहुरि अन्य जीवकै शरीर को रोगादियुक्त करें। यहाँ इतना है- अपने शरीरको वा अन्य पुद्गल स्कंधनिको तो जेती शक्ति होय तितने ही परिणमाय सके, तात सर्व कार्य करने की शक्ति नाहीं। बहुरि अन्य जीवके शरीरादिकको वाका पुण्य पापके अनुसारि परिणमाय सके। वाकै पुण्य उदय होय तो आप रोगादिरूप न परिणमाय सकै अर पाप उदय होय तो वाका इष्टकार्य न कर सके। ऐसे व्यंतरादिकनिकी शक्ति जाननी।
यहाँ कोऊ कई-इतनी जिनकी शक्ति पाईए, तिनके मानने-पूजने में दोष कहा?