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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६०
मए भी कष्ट सहे पुण्यवंध होय, तो सर्व तिर्यंचादिक देव ही होय सो बनै नाहीं। तैसे ही चाहकार उपवासादि किए तहाँ भूख तृषादि कष्ट सहिए है। सो यहु बाह्य निमित्त है। यहाँ जैसा परिणाम होय तैसा फल पावे है। जैसे अन्न का प्राण कह्या । बहुरि ऐसे बाह्यसाधन भए अंतरंग तपकी वृद्धि हो है तातै उपचारकरि इनको तप कहे हैं। जो बाम तप तो करै अर अंतरंग तप न होय तो उपचारतें भी वाको तपसंज्ञा नाहीं। सोई कमा है
कषायविषयाहारो, त्यागो यत्र विधीयते।
उपवासः स विज्ञेयः शेष लंधनक यिदुः।। जहाँ कषाय, विषय, आहारका त्याग कीजिए सो उपवास जानना। अवशेषको श्रीगुरु लंघन कहै हैं। यहाँ कहेगा- जो ऐसे हैं तो हम उपवासादि न करेंगे?
ताको कहिए है- उपदेश तो ऊँचा चढ़नेको दीजिए है। तू उलटा नीचा पड़ेगा तो हम कहा करेंगे। जो तू मानादिकतै उपवासादि करै है तो करि वा मति करै; किछू सिद्धि नाहीं। अर जो धर्मबुद्धिर्त आहारादिकका अनुराग छोड़े है, तो जेता राग छुट्या तेता ही छूट्या परन्तु इसहीको तप जानि इसतै निर्जरा मानि सन्तुष्ट मति होहु । बहुरि अंतरंग तपनिविषै प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग, ध्यानरूप जो क्रिया ताविषै बाह्य प्रवर्त्तनसो तो बाह्य तपवत् ही जानना। जैसे अनशनादि बाह्य क्रिया हैं। तैसे ए भी बाह्यक्रिया हैं। तातै प्रायश्चित्तादि बाह्य साधन अंतरंग तप नाहीं है। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होते जो अंतरंग परिणामनिकी शुद्धता होय, ताका नाम अंतरंग तप जानना। तहाँ भी इतना विशेष है, बहुत शुद्धता भए शुद्धोपयोगरूप परिणति होइ; तहाँ तो निर्जरा ही है, बंध नाहीं हो है। अर स्तोक शुद्धता भए शुभोपयोगका भी अंश रहै, तो जेती शुद्धता भई ताकरि तो निर्जरा है अर जेता शुभ भाव है ताकरि बंध है। ऐसा मिश्रभाव युगपत् हो है, तहाँ बंध वा निर्जरा दोऊ हो हैं।
यहाँ कोऊ कहै- शुभ भावनितें पापकी निर्जरा हो है, पुण्यका बंध हो है, शुख भावनित दोऊनिकी निर्जरा हो है, ऐसा क्यों न कहो?
___ ताका उत्तर- मोक्षमार्गविष स्थितिका तो घटना सर्वही प्रकृतीनि का होय । तहाँ पुण्य पाएका विशेष है ही नाहीं। अर अनुभाग का घटना पुण्यप्रकृतीनिक शुद्धोपयोगरौं भी होता नाहीं। ऊपरि ऊपरि पुण्यप्रकृतीनिके अनुभाग का तीव्र बंध उदय हो है और पापप्रकृति के परमाणु पलटि शुभप्रकृतिरूप होय, ऐसा संक्रमण शुभ व शुद्ध दो भाव होते होय। तातै पूर्वोक्त नियम सम्भव नाहीं। विशुद्धताहीके अनुसार नियम सम्भवै है। देखो, धतुर्यगुणस्थानवाला शास्त्राभ्यास आत्मचितवनादि कार्यकरै, तहाँ भी निर्जरा नाहीं, बंध भी घना होय। अर पंचमगुणस्थानवाला विषय-सेवनादि कार्य करे, तहाँ भी वाके गुणश्रेणि निर्जरा हुआ कर, बंध भी थोरा होय। बहुरि पंधम गुणस्थानवाला उपवासादिवा प्रायश्विचादि तप करे, तिस कालविषै भी वाकै निर्जरा थोरी अर छठा गुणस्थानवाला आहार-विहारादि क्रिया करे, विस कालविष भी वाके निर्जरा धनी, उसतें भी बंध योरा होय। तातै वाय प्रवृत्तिके अनुसारि निर्जरा नाही