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सातवा अधिकार-१८E
बायतप तो शुद्धोपयोग बधावनेके अर्थि कीजिए है। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है तातै उपचारकरि तपको भी निर्जराका कारण कया है। जो बाह्य दुःख सहना ही निर्जराका कारण होय तो तिर्यंचादि भी भूख तृषादि सहै है।
___ तब वह कहै है- वे तो पराधीन सहै है, स्वाधीनपने धर्मबुद्रित उपवासादिरूप तप कर, ताकै निर्जरा हो है?
ताका समाधान- धर्मबुद्धि” बाह्य उपवासादि तो किए, बहुरि तहाँ उपयोग अशुभ शुभ शुद्धरूप जैसे परिणमै तैसे परिणमो। घने उपवासादि किए घनी निर्जरा होय, थोरे किए थोरी निर्जरा होय; जो ऐसे नियम ठहरै तो उपवासादिक ही निर्जरा का मुख्य कारण टहरै, सो तो बनै नाहीं। परिणाम दुष्ट भए उपवासादिकतै निर्जरा होनी कैसे सम्भवै? बहुरि जो कहिए- जैसे अशुभ शुभ शुद्धरूप उपयोग परिणमै ताकै अनुसार बंध निर्जरा है तो उपवासादि तप मुख्य निर्जराका कारण कैसे रह्या? अशुभ शुभ परिणाम बंधके कारण ठहरै, शुद्ध परिणाम किरा हो कार" हो।
यहाँ प्रश्न- जो तत्त्वार्थसूत्रविषै “तपसा निर्जरा च" (६-३) ऐसा कैसे कह्या है?
ताका समाधान- शास्त्रविष "इच्छानिरोधस्तपः" ऐसा कह्या है। इच्छाका रोकना ताका नाम तप है। सो शुभ अशुभ इच्छा मिटे उपयोग शुद्ध होय, तहाँ निर्जा हो है। तातै तपकरि निर्जरा कही है।
यहाँ कोऊ कहै; आहारादिरूप अशुभकी तो इच्छा दूरि भए ही तप होय परन्तु उपवासादिक वा प्रायश्चित्तादि शुभ कार्य हैं तिनकी इच्छा तो रहे?
ताका समाधान- ज्ञानी जननिकै उपदासादि की इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोग की इच्छा है। उपवासादि किए शुद्धोपयोग बथै है, तातै उपवासादि करै हैं। बहुरि जो उपवासादिकर्तं शरीर वा परिणामनिकी शिथिलताकरि शुद्धोपयोग शिथिल होता जानै, तहाँ आहारादिक ग्रहै हैं। जो उपवासादिकहीते सिद्ध होय, तो अजितनाथादिक तेईस तीर्थकर दीक्षा लेय दोय उपवास ही कैसे धरते? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी। परन्तु जैसे परिणाम भए तैसे बाह्य साधनकरि एक वीतराग शुद्धोपयोग का अभ्यास किया।
यहाँ प्रश्न- जो ऐसे है तो अनशनादिकको तपसंज्ञा कैसे भई?
ताका समाधान-इनिको बाह्यतप कहै हैं। सो बाह्य का अर्थ यहु-जो बाह्य औरनिको दीसे यह तपस्वी है। बहुरि आप तो फल जैसे अन्तरंग परिणाम होगा तैसा ही पावेगा। जाते परिणामशून्य शरीर की क्रिया फलदाता नाहीं है।
बहुरि इहाँ प्रश्न- जो शास्त्रविषै तो अकामनिर्जरा कही है। तहाँ बिना चाहि भूख तृषादि सहे निर्जरा हो है तो उपवासादिकरि कष्ट सह कैसे निर्जरा न होय?
ताका समाधान-अकामनिर्जराविष भी बाह्य निमित्त तो बिना चाहि भूख तृषाका सहना भया है! अर तहाँ मंद कषायरूप भाव होय तो पापकी निर्जरा होय, देवादि पुण्यका बंध होय। अर जो तीव्रकषाय