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सातवाँ अधिकार- १७५
है नाहीं । उपदेश देनेवाले का तो अभिप्राय असत्य श्रद्धानादि छुड़ाय मोक्षमागविष लगावने का जानना। सो ऐसा अभिप्रायतें इहां निरूपण कीजिए है।
मुरल अपेक्षा धर्म मानने का निषेध तहाँ केई जीव तो कुलक्रमकारे ही जैनी हैं, जैनधर्मका स्वरूप जानते नाहीं। परन्तु कुलविष जैसी प्रवृत्ति चली आई, तैसे प्रवर्स हैं। सो जैसे अन्यमत्ती अपने कुलधर्मविषै प्रवर्त्त है, तैसे यह प्रवत् है। जो कुलक्रमहीतै धर्म होय, तो मुसलमान आदि सर्व ही धर्मात्मा होय । जैनधर्म का विशेष कहा रह्या? सोई कह्या
लोयम्मि रायणोई णायं ण कुलकमम्मि कइयादि। किं पुण तिलोयपहुणो जिणंदधम्माहिगारम्मि।।
(उप. सि. र. गाथा ७) याका अर्थ- लोकविषै यहु राजनीति है-कदाचित् कुलक्रमकरि न्याय नाहीं होय है। जाका कुल चोर होय, ताको चोरी करता पकरै तो वाफा कुलक्रम जानि छोड़े नाहीं, दंड ही दे। तो त्रिलोक प्रमु जिनेन्द्रदेवके धर्मका अधिकारविषे कहा कुलक्रम अनुसारि न्याय सम्भवै । बहुरि जो पिता दरिद्री होय आप धनवान होय, तहाँ तो कुलक्रम विचार आप दरिद्री रहता ही नाहीं तो धर्मविष कुलका कहा प्रयोजन है। बहुरि पिता नरक जाय पुत्र मोक्ष जाय, तहाँ कुलक्रम कैसे रह्या? जो कुल ऊपरि दृष्टि होय, तो पुत्र भी नरकगामी होय । ताते धर्मविषै कुलक्रमका किछू प्रयोजन नाहीं। शास्त्रनिका अर्थ विचारि जो कालदोष तैं जिनधर्म विषै भी पापी पुरुषनिकरि कुलदेव कुगुरु कुधर्म सेवनादिरूप वा विषय-कषाय पोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलाई होय, ताका त्यागफरि जिनआज्ञा अनुसारि प्रवर्त्तना योग्य है।
इहाँ कोऊ कहै- परम्परा छोड़ि नवीन मार्गविर्षे प्रवर्तना युक्त नाहीं । ताको कहिए है
जो अपनी बुद्धिकरि नवीन मार्ग पकरै तो युक्त नाहीं। जो परम्परा अनादिनिधन जैनधर्मका स्वरूप शास्त्रनिविषै लिख्या है, ताकी प्रवृत्ति मेटि बीचिमें पापी पुरुषाँ अन्यथा प्रवृत्ति चलाई, तो ताको परम्परामार्ग कैसे कहिए । बहुरि ताको छोड़ि पुरातन जैनशास्त्रनिविषै जैसा धर्म लिख्या था तैसे प्रवर्ते, तो ताको नवीन मार्ग कैसे कहिए। बहुरि जो कुलविषै जिनदेवकी आज्ञा है, तैसे ही धर्म की प्रवृत्ति है, तो आपको भी तैसे ही प्रवर्त्तना योग्य है। परन्तु ताको कुलाचार न जानना, धर्म जानि ताके स्वरूप फलादिकका निश्चय करि अंगीकार करना । जो सांचा भी धर्मको कुलाचार जानि प्रवर्ते है तो बाको धर्मात्मा न कहिए, जात सर्व कुलके उस आचरणको छोड़े तो आप भी छोड़ि दे। बहुरि जो वह आचरण करै है सो कुल का भयकारे करै है, किछू धर्मबुद्धि” नाहीं करे है, तातै वह धर्मात्मा नाहीं। तातै विवाहादि कुल सम्बन्धी कार्यनिविषै तो कुलक्रम का विचार करना अर धर्मसम्बन्धी कार्यविषै कुलका विचार न करना । जैसे धर्ममार्ग साँचा है, तैसे प्रवर्तना योग्य है।