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मोक्षमार्ग प्रकाशक-७८
वा पूजा प्रभावनादि कार्यनिकरि वा अतिशय चमत्कारादिकरि वा जिनधर्मत इष्ट प्राप्ति होनेकरि जिनमतको उत्तम जानि प्रीतिवंत होय जैनी होय है 1 सो अन्यमतविष भी ऐसा तो कार्य पाईए है, ताते इन लक्षणनिविषै अतिव्याप्ति पाईए है।
कोऊ कहे- जैसे जिनधर्मविषै ए कार्य हैं, तैसे अन्यमतविष न पाइए हैं, तातै अतिव्याप्ति नाहीं ।
ताका समाधान- यह तो सत्य है, ऐसे ही है। परन्तु जैसे तू दयादिक मानै है, तैसे तो वे भी निरूप है। परजीवनिकी रक्षाको दया तू कहै है, सोई वे कहै हैं। ऐसे ही अन्य जानने।
बहुरि वह कह है- उनकै ठीक नाहीं। कबहूँ दया प्ररूपै, कबहूँ हिंसा प्ररूपै ।
ताका उत्तर- तहाँ दयादिकका अंशमात्र तो आया। तातै अतिव्याप्तिपना इन लक्षणनिकै पाइए है। इनकरि साँची परीक्षा होय नाहीं। तो कैसे होय? जिनधर्म विर्ष सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मोक्षमार्ग कहा है। तहाँ सांचे देवादिकका वा जीवादिकका श्रद्धान किए सम्यक्त्व होय वा तिनको जाने सम्यग्ज्ञान होय वा साँचा रागादिक मिटे सम्यक्चारित्र होय, सो इनक स्वरूप है जैसे जिनमत विष निरूपण किया है, तैसे कहीं निरूपण किया नाही वा जैनी बिना अन्यमती ऐसा कार्य करि सकते नाहीं। तातै यहु जिनमतका सांचा लक्षण है। इस लक्षण को पहचानि जे परीक्षा करे, तेई श्रद्धानी हैं। इस बिना अन्य प्रकार करि परीक्षा करि हैं, ते मिध्यादृष्टी ही रहे हैं।
बहुरि केई संगतिकरि जैनधर्म धारै हैं। केई महान् पुरुषको जिनधर्मविष प्रवर्तता देखि आप भी प्रवर्ते हैं केई देखादेखी जिनधर्म की शुद्ध वा अशुद्ध क्रियानिविषै प्रवर्ते हैं। इत्यादि अनेक प्रकारके जीव आप विचारकरि जिनधर्म का रहस्य नाहीं पहिचान हैं। अर जैनी नाम धरावै हैं, ते सर्व मिथ्यादृष्टी ही जानने। इतना तो है। जिनमतविष पापकी प्रवृत्तिविशेष नहीं होय सके है अर पुण्यके निमित्त घने हैं अर सांचा मोक्षमार्ग के भी कारण तहाँ बनि रहे हैं। तात जे कुलादिकरि भी जैनी हैं, ते भी औरनितें तो भले ही हैं।
आजीविकादि प्रयोजनार्थ धर्मसाधनका प्रतिषेध बहुरि जे जीव कपटकारे आजीविकाके अर्थि वा बड़ाई के अर्थि वा किछू विषयकषाय सम्बन्धी प्रयोजन विचारि जैनी हो हैं, ते तो पापी ही हैं। अति तीव्रकषाय भए ऐसी बुद्धि आवै है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्म तो संसारका नाश के अर्थि सेइए है। ताकरि जो संसारीक प्रयोजन साध्या चाहै सो बड़ा अन्याय करै है। तातै ते तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
इहाँ कोऊ कहै-हिंसादिकरि जिन कार्यनिको करिए, ते कार्य धर्मसाधनकरि सिद्ध कीजिए तो बुरा कहा भया। दोऊ प्रयोजन सथे।
ताको कहिए है- पापकार्य अर धर्मकार्यका एक साधन किए पाप ही होय । जैसे कोऊ धर्मका साधन चैत्यालय बनाय, तिसहीको स्त्रीसेवनादि पापनिका भी साधन कर, तो पापी ही होय । हिंसादिकरि भोगादिकके अर्थि जुदा मन्दिर बनायै तो बनावो परन्तु चैत्यालयविर्ष भोगादि करना युक्त नाहीं। तैसे धर्मका साथन पूजा