Book Title: Mokshmarga Prakashak
Author(s): Jawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
Publisher: Pratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh

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Page 208
________________ सातवाँ अधिकार-११ भी करै है तो तत्त्वज्ञान पूर्वक साँची परीक्षा नाहीं करै है। बाह्य लक्षणनिकरि परीक्षा करै है। ऐसे प्रतीतिकरि सुदेव सुगुरु सुशास्त्रनिकी भक्तिविर्षे प्रवर्ते है। अरहंतभक्तिका अन्यथा रूप तन्हा कारहंत देव, सो इन्साटिगरि पूज्य हैं, अनेक अतिशयसहित हैं, क्षुधादि दोषरहित है, शरीरकी सुन्दरताको धरै हैं, स्त्रीसंगमादि रहित हैं, दिव्यध्वनिकरि उपदेश दे हैं, केवलज्ञानकरि लोकालोक जाने है, काम-क्रोधादिक नष्ट किए हैं, इत्यादि विशेषण कहै हैं। तहां इनविषै केई विशेषण पुद्गलके आश्रय, केई जीवके आश्रय हैं, तिनको भिन्न-भिन्न नाही पहिचान है। जैसे असमानजातीय मनुष्यादि पर्यायनिविषै जीव पुद्गलके विशेषणनिको भिन्न न जानि मिथ्यादृष्टि धरै है तैसे यह असमानजातीय अरहन्तपर्यायविर्ष जीवपुद्गलके विशेषणनिको भिन्न न जानि मिथ्यादृष्टि धारै है। बहुरि जे बाह्य विशेषण हैं, तिनको तो जानि तिनकार अरहन्तदेवको महन्तपनो विशेष मानै है अर जे जीयके विशेषण हैं, तिनको यथावत् न जामि तिनकरि अरहन्तदेवको महन्तपनो आज्ञा अनुसार मानै है अथवा अन्यथा मानै है। जात यथावत् जीवका विशेषण जाने मिथ्यादृष्टी रहै नाहीं। बहुरि तिनि अरहन्तनिको स्वर्गमोक्षका दाता, दीनदयाल, अधम उधारक, पतितपावन मानै है सो अन्यमती कर्तृत्वबुद्धितै ईश्वरको जैसे माने है, तैसे ही यहु अरहन्तको माने है। ऐसा नाहीं जानै है-फलतो अपने परिणामनिका लागै है अरहन्त तिनिको निमित्तमात्र हैं, तातै उपचारकरि वे विशेषण सम्भवै हैं। अपने परिणाम शुद्ध भए बिना अरहन्तादिकके नामादिकतै श्वानादिक स्वर्ग पाया तहां नामादिकका ही अतिशय माने है। बिना परिणाम 'नाम लेने वालोंके भी स्वर्गकी प्राप्ति न होय तो सुननेवालेके कैसे होय । श्वानादिककै नाम सुनने के निमित्तते कोई मंदकषायरूप भाव भए हैं, तिनका फल स्वर्ग भया है। उपचारकरि नामहीकी मुख्यता करी है। बहुरि अरहन्तादिकके नाम-पूजनादिकतै अनिष्ट सामग्रीका नाश, इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति मानि रोगादि मेटनेके अर्थि वा धनादिकी प्राप्ति के अर्थि नाम ले है वा पूजनादि करै है। सो इष्ट अनिष्टका तो कारण पूर्वकर्मका उदय है। अरहन्त तो कर्त्ता है नाहीं। अरहन्तादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामनितें पूर्व पापका संक्रमणादिक होय जाय है। तातै उपचारकरि अनिष्टका नाशको वा इष्टकी प्राप्तिको कारण अरहंतादिककी भक्ति कहिए है। अर जे जीव पहलेही संसारी प्रयोजन लिए भक्ति करें, ताकै तो पापहीका अभिप्राय भया। कांक्षा विचिकित्सास्थप भाव भए तिनिकरि पूर्वपापका संक्रमणादि कैसे होय? बहुरि तिनिका कार्य सिद्ध न भया। बहुरि केई जीव भक्तिको मुक्तिका कारण जानि तहाँ अति अनुरागी होय प्रवत्त है सो अन्यमती जैसे भक्ति तैं मुक्ति मानै है तैसे याकै भी श्रद्धान भया। सो भक्ति तो रागरूप है। रागत बंध है। ताज मोक्ष का कारण नाहीं। जब राग उदय आवै तब भक्ति न करे तो पापानुराग होय । ताते अशुभ राग भेडनेको मानी भक्ति विष प्रवत है वा मोसमार्ग को बास निमित्तमात्र भी जाने हैं। परन्तु यहाँ ही उपादेयपना मानि . कहा भी है : पवित्रं यन्निरातक सिद्धानां पदमव्ययं । दुष्प्राप्यं विदुषामर्थ्य प्राप्यते तज्जिनार्चकैः ।।१२/३६ अमितगति श्रावकाचार अर्थात् जिनदेव के पूजक पुरुष सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं।

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