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सातवाँ अधिकार-१७६
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शास्त्रादि कार्य हैं, तिनहीको आजीविका आदि पाप का भी साधन करे, तो पापी ही होय।' हिंसादि करि आजीविकादि के अर्थि व्यापारादि करै तो करो परन्तु पूजादि कार्यनिविषै तो आजीविका आदि का प्रयोजन विचारना युक्त नाहीं।
इहां प्रश्न- जो ऐसे है तो मुनि भी धर्म साधि पर घर भोजन करै हैं वा साधर्मी साधर्मी का उपकार करै करावै हैं, सो कैसे बने?
ताका उत्तर- जो आप तो किछू आजीविका आदि का प्रयोजन विचारि धर्म नाहीं साधै है, आपको थर्मात्मा जानि केई स्वयमेव भोजन उपकारादि करै हैं तो किछू दोष है नाहीं । बहुरि जो आप ही भोजनादिका प्रयोजन विचारि धर्म साधै है, तो पापी है ही। जे विरागी होय मुनिपनो अंगीकार करै है, तिनिकै भोजनादिका प्रयोजन नाहीं, शरीर की स्थिति के अर्थि स्वयमेव भोजनादि कोई दे तो ले, नाहीं समता राखे । संक्लेशरूप होय नाहीं । बहुरि आप हितके अर्थि धर्म साधे हैं, उपकार करयानेका अभिप्राय नाहीं है। अर आपर्क जाका त्याग नाही, ऐसा उपकार करावै। कोई साधर्मी स्वयमेव उपकार कर तो करो अर न करै तो आपके किछू
१. (A) पं. जगन्मोहनलाल सिद्ध्यन्तशास्त्री (कटनी, म.प्र.) लिखते हैं कि - (१) पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, पर्यों में प्रवचन विधान आदि धार्मिक कार्यों में पारिश्रमिक के रूप में ठहराव करके एवं/अथवा वेतन आदि के रूप में रुपया लेना/आजीविका चलाना तो पाप ही है। ऐसे विद्वान् टोडरमलजी कथित श्रेणी में अवश्य आते हैं। (२) जिन विद्वानों ने श्रतसेवा की है उनकी आजीविका की चिन्ता समाज को करनी आवश्यक है। अतएव जिन संस्थाओं या समाज द्वारा उनकी आजीविका में सहयोग किया गया है, यह उन संस्थाओं या समाज का कर्तव्य ही था अतः वे विद्वान इस श्रेणी में (पापजीविका की श्रेणी में) नहीं गिने जा सकते हैं। क्योंकि ऐसे विद्वानों ने आजीविका के लिए श्रुतसेवा नहीं की है, किन्तु समाज व संस्थाओं के आग्रह पर पुण्यकार्य ही किया है। उस स्थिति में समाज भी अपना कर्त्तव्य-निर्वाह करे यानी ऐसे सत पण्डितों के जीवन-निर्याह के बारे में सोचना व व्यवस्था करना समाज का कर्त्तव्य था जिसे समाज ने नहीं किया। (पत्र दि. २७.१०. ६२ व १५.१२.६२ कुण्डलपुर/सतना) __(B) डॉ. प. पन्नालाल साहित्याचार्य, सागर लिखते हैं कि - जिस समय पं.सा. ने मोक्षमार्ग-प्रकाशक लिखा उस समय ब्राह्मण विद्वानों में पैसा लेकर पढ़ाना अप्रचलित था। वाराणसी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक ब्राह्मण विद्वान् ने वेतन लेकर पढ़ाने का काम इस शर्त पर स्वीकृत किया कि उन्हें घर से पालकी में ले जाया जाए तथा पालकी से ही पहुंचा दिया जाए। धीरे-धीरे अन्य लौकिक विषयों में अध्यापक नियुक्त हुए। तब वि.वि. में नौकरी प्राप्त करने की होड़ लग गई। जैन विद्वानों में रैपाणी व्यापार करते हुए ही पढ़ाते थे। कहीं से कुछ भी विदाई नहीं लेते थे। पं. पांचूरामजी इन्दौर को हमने सागर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आमंत्रित किया था। विदाई के अवसर पर उन्होंने मार्गव्यय के नाम पर केवल ३० रु. स्वीकृत किये थे, पर आज प्रायः प्रतिष्ठाचार्यों ने प्रतिष्ठा-कार्य को धन्धा बना लिया है। __परिस्थितिवश यदि जैन विद्वान् जैनशालाओं में पैसा लेकर पढ़ाते हैं और ईमानदारी से काम पूरा करते है तो इसे पापजीविका नहीं कहा जा सकता। समाज विद्वान् को देती ही क्या है? पं. देवकीनन्दनजी (सम्पादक-धवला) ने जब मुरैना छोड़ा तब उन्हें तीस रु. ही मासिक मिलता था। आज भी जैन शालाओं में विद्वान् आत्यन्त सीमित वेतन में काम कर रहे हैं। फिर भी जिनकी सामर्थ्य अच्छी है, पारिवारिक चिन्ता नहीं रही है उन्हें वेतन लेकर धर्म नहीं पढ़ाना चाहिए। फिर भी अभी जो जैन विद्यालयों में अध्यापन हो रहा है उसे पापजीविका कहना उचित नहीं है।
- (पत्र दि. १२.१०.६२ जबलपुर)