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साली अधिकार--१७७
इहा प्रश्न-देवादिकका कथन तो अन्यथा विषयकषायतें किया, तिनि ही शास्त्रनिविष अन्य कथन अन्यथा काहेको किया।
ताका समाधान- जो एक ही कथन अन्यथा कहै, वाका अन्यथापना शीघ्र ही प्रगट होय जाय। जुदी पद्धति ठहरै नाहीं। तातै घने कथन अन्यथा करनेते जुदी पद्धति ठहरे। तहाँ तुच्छ बुद्धि भ्रममें पड़ि जाययहु भी मत है। यह भी मत है। तातै प्रयोजनभूतका अन्यथापना का मेलनेके अर्थि अप्रयोजनभूत भी अन्यथा कथन घने किए। बहुरि प्रतीति अनावनेके अर्थि कोई-कोई साँचा भी कथन किया। परन्तु स्याना होय सो भ्रम में परै नाहीं। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षाकरि जहाँ सांच भासै, तिस मत की सर्व आज्ञा माने, सो परीक्षा किए जैनमत ही सांचा भास है, अन्य नाहीं । जाते याका वक्ता सर्वज्ञ वीतराग है, सो झूठ काहेको कहै। ऐसे जिन आज्ञा माने जो सांचा श्रद्धान होय, ताका नाम आज्ञा सम्यक्व है। बहुरि तहाँ एकात्र चिन्तवन होय, ताहीका नाम आज्ञाविषय धर्मथ्यान है। जो ऐसे न मानिए अर बिना परीक्षा किए ही आज्ञा माने सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय जाय, तो जो द्रव्यलिंगी आज्ञा मानि मुनि भया, आज्ञा अनुसारि साधनकरि ग्रेवेयक पर्यन्त प्राप्त होय, ताकै मिथ्यादृष्टिपना कैसे रह्या? ताते किछु परीक्षाकरि आज्ञा माने ही सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय है। लोकविष भी कोई प्रकार परीक्षा भए ही पुरुषकी प्रतीति कीजिए है।
बहुरि से कहा- जिनवचनविषै संशय करनेः सम्यक्त्वका शंका नामा दोष हो है, सो 'न जानै यह कैसे है' ऐसा मानि निर्णय न कीजिए, तहाँ शंका नामा दोष हो है। बहुरि जो निर्णय करनेको विचार करते ही सम्यक्त्वको दोष लागै, तो अष्टसहस्रीविषै आज्ञाप्रधानतें परीक्षाप्रधानको उत्तम काहेको कहा? पृच्छना आदि स्वाध्यायके अंग कैसे कहै । प्रमाण नयत पदार्थनिका निर्णय करनेका उपदेश काहेको दिया। तातै परीक्षा करि आज्ञा मानना योग्य है। बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन किया है अर तिनको जिनवचन टहराया है, तिनको जैनमतका शास्त्र जानि प्रमाण न करना। तहाँ भी प्रमाणादिकतें परीक्षाकरि वा परस्पर शास्त्रनितें विधि मिलाय वा ऐसे सम्भव है कि नाहीं, ऐसा विचारकरि विरुद्ध अर्थको मिथ्या ही जानना । जैसे ठिग आप पत्र लिखि तामें लिखनेवालेका नाम किसी साहूकार का धस्या, तिस नामके भ्रमते धनको ठिगावै तो दरिद्री ही होय । तैसे पापी आप ग्रन्धादि बनाय, तहाँ कर्ताका नाम जिन गणधर आचार्यनिका धस्या, तिस नामके प्रमतें झूठा श्रद्धान करै तो मिथ्यादृष्टि ही होय।
बहुरि वह कहै है-गोम्मटसार' विष ऐसा कह्या है- सम्यग्दृष्टि जीव अज्ञान गुरुके निमित्तते झूट भी श्रद्धान करै तो आज्ञा माननेते सम्यग्दृष्टि ही है। सो यह कथन कैसे किया है?
ताका उत्तर- जे प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर नाहीं, सूक्ष्मपनेते जिनका निर्णय न होय सके, तिनिकी अपेक्षा यह कथन है। मूलभूत देव गुरु धर्मादि वा तत्त्वादिकका अन्यथा श्रद्धान भए तो सर्वथा सम्यक्त्व रहै नाहीं, यह निश्चय करना। तातै बिना परीक्षा किए केवल आज्ञा ही करि जैनी है, ते भी मिथ्यादृष्टी जानने। बहुरि केई परीक्षा भी करि जैनी हो है परन्तु मूल परीक्षा नाहीं करै है। दया शील तप संयमादि क्रियानिकारे १. सम्माइट्टी जीवो उवइट पवयणं तु सद्दहदि ।
सद्दहदि असभादं अजाणभाणो गुरुणियोगा ।। २७ ।।