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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१८०
संक्लेश होता नाहीं। सो ऐसे तो योग्य है। अर आपही आजीविका आदिका प्रयोजन विचार बाह्य धर्मका साधन करै, जहाँ भोजनादि उपकार कोई न करै तहाँ संक्लेश करे, याचना करे, उपाय करै, वा धर्मसाधनविषै शिथिल होय जाय सो पापी ही जानना । ऐसे संसारीक प्रयोजन लिए जे धर्म साधै हैं ते पापी भी है अर मिथ्यादृष्टि हैं ही या प्रकार जिनमतवाले भी मिथ्यादृष्टि जानने । अब इनकै धर्मका साधन कैसे पाइए है, सो विशेष दिखाइए है
जैनाभासी मिथ्यादृष्टि की थर्म-साधना तहां केई जीव कुलप्रवृत्तिकरि वा देख्यां देखी लोभादिका अभिप्रायकरि धर्म साधे हैं, तिनिकै तो धर्मदृष्टि नाहीं। जो भक्ति करै है तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि फिरया करै है। अर मुखत पाटादि कर है वा नमस्कारादि करै है परन्तु यहु ठीक नाही- मैं कौन हूँ किसकी स्तुति करूँ हूँ, किस प्रयोजन के अर्थि स्तुति करूं हूं, पाठविषे कहा अर्थ है, सो किछू ठीक नाहीं। बहुरि कदाचित् कुदेवादिककी भी सेवा करने लगे जाय। तहाँ सुदेवसुगुरुसुशास्त्रादि वा कुदेव कुगुरु कुशास्त्रादि विष विशेष पहिचान नाहीं। बहुरि जो दान दे है तो पात्र-अपात्र का विचाररहित जैसे अपनी प्रशंसा होय तैसे दान दे है। बहुरि तप करै है तो भूखा रहनेकरि महंतपनो होय सो कार्य करै है। परिणामनिकी पहिचान नाहीं। बहुरि प्रतादिक धारै है, तहां बाह्य क्रिया ऊपर दृष्टि है। सो भी कोई साँची क्रिया करै है, कोई झूठी करै है। अर अंतरंग रागादि भाव पाइए है, तिनिका विचार ही नाही वा बाह्य भी रागादि पोषने का साथन करै है। बहुरि पूजा प्रभावना आदि कार्य करै है, तहां जैसे लोकविष बढ़ाई होय वा विषय-कषाय पोषै जांय तैसे कार्य करै है। बहुरि बहुत हिंसादिक निपजाव है। सो ए कार्य तो अपना वा अन्य जीवनिका परिणाम सुधारने के अर्थ कहे हैं। बहुरि तहां किंचित् हिंसादिक भी निपजै है तो थोरा अपराध होय, गुण बहुत होय सो कार्य करना कह्या है। सो परिणामनिकी पहचान नाहीं । अर यहाँ अपराध केता लागै है, गुण केता हो है सो नफा टोटा का ज्ञान नाही चा विधि अविथिका ज्ञान नाहीं। बहुरि शास्त्राभ्यास करै है, तहाँ पद्धतिरूप प्रवत है। जो वांचै है तो
औरनिको सुनाय दे है। पढ़े है तो आप पढ़ि जाय है। सुनै है तो कहै है सो सुनि ले है। जो शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है, ताको आप अंतरंग विष नाही अवधार है। इत्यादि धर्मकार्यनिका मर्मको नाही पहिचाने। केई तो कुलविषै जैसे बड़े प्रवते तैसे हमको भी करना अथवा और करै हैं तैसे हमको भी करना वा ऐसे किए हमारा लोभादिककी सिद्धि होसी, इत्यादि विचार लिये अभूतार्थ धर्म को साथै हैं। बहुरि केई जीव ऐसे हैं जिनके किछू तो कुलादिरूप बुद्धि है, किछू धर्मबुद्धि भी है, तातै पूर्वोक्त प्रकार भी धर्मका साधन करै हैं
अर किछू आगै कहिए हैं, तिस प्रकार करि अपने परिणामनिको भी सुथारै हैं । मिश्रफ्नो पाइए है। बहुरि . केई धर्मबुद्धिकरि धर्म साथै हैं परन्तु निश्चय धर्मको न जाने हैं। तातैं अभूतार्थ रूप धर्मको साथै हैं । तहाँ व्यवहार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रको मोक्षमार्ग जानि तिनिका साधन करै है। तहाँ शास्त्रविषे देव गुरु धर्मकी प्रतीति किए सम्यक्त्व होना कह्या है। ऐसी आज्ञा मानि अरहन्तदेव, निर्गन्धगुरू, जैनशास्त्र बिना औरनिको नमस्कारादि करने का त्याग किया है परन्तु तिनिका गुण-अवगुणकी परीक्षा नाहीं करै है। अथवा परीक्षा